यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 47
ऋषिः - विरूप ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - विराड ब्राह्मी पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
231
इ॒मं मा हि॑ꣳसीर्द्वि॒पादं॑ प॒शुꣳ स॑हस्रा॒क्षो मेधा॑य ची॒यमा॑नः। म॒युं प॒शुं मेध॑मग्ने जुषस्व॒ तेन॑ चिन्वा॒नस्त॒न्वो निषी॑द। म॒युं ते॒ शुगृ॑च्छतु॒ यं द्वि॒ष्मस्तं ते॒ शुगृ॑च्छतु॥४७॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम्। मा। हि॒ꣳसीः॒। द्वि॒पाद॒मिति द्वि॒ऽपाद॑म्। प॒शुम्। स॒ह॒स्रा॒क्ष इति॑ सहस्रऽअ॒क्षः। मेधा॑य। ची॒यमा॑नः। म॒युम्। प॒शुम्। मेध॑म्। अ॒ग्ने। जु॒ष॒स्व॒। तेन॑। चि॒न्वा॒नः। त॒न्वः᳖। नि। सी॒द॒। म॒युम्। ते॒। शुक्। ऋ॒च्छ॒तु॒। यम्। द्वि॒ष्मः। तम्। ते॒। शुक्। ऋ॒च्छ॒तु॒ ॥४७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमम्मा हिँसीर्द्विपादम्पशुँ सहस्राक्षो मेधाय चीयमानः । मयुम्पशुम्मेधमग्ने जुषस्व तेन चिन्वानस्तन्वो निषीद । मयुन्ते शुगृच्छतु यन्द्विष्मस्तन्ते शुगृच्छतु ॥
स्वर रहित पद पाठ
इमम्। मा। हिꣳसीः। द्विपादमिति द्विऽपादम्। पशुम्। सहस्राक्ष इति सहस्रऽअक्षः। मेधाय। चीयमानः। मयुम्। पशुम्। मेधम्। अग्ने। जुषस्व। तेन। चिन्वानः। तन्वः। नि। सीद। मयुम्। ते। शुक्। ऋच्छतु। यम्। द्विष्मः। तम्। ते। शुक्। ऋच्छतु॥४७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्येण किं कार्य्यमित्याह॥
अन्वयः
हे अग्ने! पावक इव मनुष्य मेधाय चीयमानः सहस्राक्षस्त्वमिमं द्विपादं मेधं मयुं पशुं च मा हिंसीः, तं पशुं जुषस्व। तेन चिन्वानः सन् तन्वो मध्ये निषीद। इयं ते शुङ् मयुमृच्छतु। ते तव यं शत्रुं वयं द्विष्मस्तं शुगृच्छतु॥४७॥
पदार्थः
(इमम्) (मा) (हिंसीः) हिंस्याः (द्विपादम्) मनुष्यादिकम् (पशुम्) चतुष्पादं गवादिकम् (सहस्राक्षः) असंख्यदर्शनः (मेधाय) सुखसंगमाय (चीयमानः) वर्धमानः (मयुम्) जाङ्गलम् (पशुम्) प्रसिद्धम् (मेधम्) पवित्रकारकम् (अग्ने) पावक इव मनुष्यजन्मप्राप्त (जुषस्व) प्रीणीहि (तेन) (चिन्वानः) वर्धमानः (तन्वः) शरीरस्य मध्ये पुष्टः सन् (नि) नितराम् (सीद) तिष्ठ (मयुम्) शस्यादिहिंसकं पशुम् (ते) तव (शुक्) शोकः, भावे क्किप्। (ऋच्छतु) प्राप्नोतु (यम्) शत्रुम् (द्विष्मः) अप्रीतयामः (तम्) (ते) तव सकाशात् (शुक्) शोकः (ऋच्छतु)। [अयं मन्त्रः शत॰७.५.२.३२ व्याख्यातः]॥४७॥
भावार्थः
केनापि मनुष्येणोपकारकाः पशवः कदाचिन्न हिंसनीया, किन्त्वेतान् संपाल्यैतेभ्य उपकारं संगृह्य सर्वे मनुष्या आनन्दयितव्याः। यैर्जाङ्गलैर्हिंसकैः पशुशस्यमनुष्याणां हानिः स्यात्, ते तु राजपुरुषैर्हन्तव्या निग्रहीतव्याश्च॥४७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के समान मनुष्य के जन्म को प्राप्त हुए (मेधाय) सुख की प्राप्ति के लिये (चीयमानः) बढ़े हुए (सहस्राक्षः) हजारह प्रकार की दृष्टि वाले राजन्! तू (इमम्) इस (द्विपादम्) दो पग वाले मनुष्यादि और (मेधम्) पवित्रकारक फलप्रद (मयुम्) जंगली (पशुम्) गवादि पशु जीव को (मा) मत (हिंसीः) मारा कर, उस (पशुम्) पशु की (जुषस्व) सेवा कर, (तेन) उस पशु से (चिन्वानः) बढ़ता हुआ तू (तन्वः) शरीर में (निषीद) निरन्तर स्थिर हो, यह (ते) तेरे से (शुक्) शोक (मयुम्) शस्यादिनाशक जंगली पशु को (ऋच्छतु) प्राप्त होवे (ते) तेरे (यम्) जिस शत्रु से हम लोग (द्विष्मः) द्वेष करें, (तम्) उसको (शुक्) शोक (ऋच्छतु) प्राप्त होवे॥४७॥
भावार्थ
कोई भी मनुष्य सब के उपकार करनेहारे पशुओं को कभी न मारे, किन्तु इनकी अच्छे प्रकार रक्षा कर और इन से उपकार ले के सब मनुष्यों को आनन्द देवे। जिन जंगली पशुओं से ग्राम के पशु, खेती और मनुष्यों की हानि हो, उनको राजपुरुष मारें और बन्धन करें॥४७॥
विषय
पशुगण की रक्षा, मनुष्य, अश्व आदि एक शक, गौ आदि दुधार पशु, भेड, बकरी, इनकी रक्षा और हिंसकों के नाश का आदेश ।
भावार्थ
हे राजन् ! हे पुरुष ! तू ( मेधाय ) सुख प्राप्त करने के लिये ( चीयमान: ) निरन्तर बढ़ता हुआ ( इमं ) इस ( द्विपादं ) दोपाये पुरुष को और ( पशुं ) उसके उपयोगी चौपाये पशु को भी ( मा हिंसी: ) मत्त नाश कर, मत मार हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! नेतः ! तु ( मेघम् पवित्र अन्न उत्पन्न करनेवाले ( मयुं पशुम् ) जंगली पशु को भी जुषस्व प्रेम कर, उसकी वृद्धि चाह । और ( तेन ) उससे भी ( चिन्वानः ) अपनी सम्पत्ति को बढ़ाता हुआ ( तन्वः ) अपने शरीर के बीच में हृष्ट पुष्ट होकर ( निषीद ) रह । ( ते शुक् ) तेरा संतापकारी क्रोध या तेरी पीड़ा भी ( मयुम् ) हिंसक जंगली पशु को (ऋच्छतु ) प्राप्त हो । और ( यं यमः ) जिससे हम प्रेम नहीं करते ( सं ) उसको (ते) तेरा (शुक्) संतापकारी क्रोध या तेरी पीड़ा ( ऋच्छतु ) प्राप्त हो । शत०७।५।२।३२॥
टिप्पणी
'सहस्राक्ष मेधा या' इति काण्वः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निर्देवता । विराड् ब्राह्मी पंक्तिः । पञ्चमः ॥
विषय
व्यापक दृष्टिकोण
पदार्थ
१. गत मन्त्र के अनुसार सब जंगम स्थावर के अन्दर प्रभु व्याप्त हो रहे हैं। सबमें प्रभु की व्याप्ति को देखनेवाला कभी किसी की हिंसा नहीं कर सकता, अतः प्रभु कहते हैं कि २. (इमम्) = इस (द्विपादं पशुम्) = दो पाँववाले पुरुषरूप पशु को (मा हिंसी:) = मत हिंसित कर। सभी मनुष्यों का तू भला चाहनेवाला बन, औरों के अहित से तेरा हित सिद्ध होनेवाला नहीं। ३. (सहस्राक्षः) = तू हज़ारों आँखोंवाला हो, व्यापक दृष्टिकोणवाला हो। ४. (मेधाय) = तू तो उस प्रभु के साथ सङ्गम [मेधृ सङ्गमे to meet ] के लिए (चीयमानः) = अपने में शक्तियों का सञ्चय व वर्धन करनेवाला बन। जब मनुष्य का उद्देश्य भौतिक हो जाता है तभी वह संकुचित भी बनता है और औरों की हिंसा से अपने पोषण का विचार करता है। ५. हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! (मयुं पशुम्) = यह जो मृगविशेष पशु है (मेधम्) = [शुद्धम् ] जो बड़ा शुद्ध व निर्दोष - किसी का बुरा चिन्तन न करनेवाला है, उसे तू (जुषस्व) = प्रेम करनेवाला बन । (तेन) = उससे (तन्वः) = शरीर की शक्तियों को (चिन्वानः) = बढ़ाता हुआ (निषीद) = तू यहाँ स्थित हो। मयु कृष्णमृग है। ऋषियों के आश्रमों में इन मृगों का हम विशिष्ट स्थान देखते हैं, अतः यह हमारे जीवन के साथ निकटता से सम्बद्ध है । ६. हाँ, जो हरिण बहुत बढ़कर खेती आदि की हानि का कारण बनें उस (मयुम्) = हरिण को (ते) = तेरा (शुक्) = मन्यु (ऋच्छतु) = प्राप्त हो, (तम्) = उस हरिण को ही (ते शुक्) = तेरा क्रोध (ऋच्छतु) = प्राप्त हो (यं द्विष्मः) = जिसे हम कृष्यादि विनाशक होने से अवाञ्छनीय समझते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम सब मनुष्यों का भला करें। व्यापक दृष्टिकोणवाले बनें। प्रभु सङ्गम के लिए अपनी शक्तियों का वर्धन करें। मयु आदि पशुओं से भी, अपने जीवन के लिए उन्हें उपयोगी जानते हुए प्रेम करनेवाले बनें। नाशक प्राणियों पर ही हमारा क्रोध हो ।
मराठी (2)
भावार्थ
सर्व प्रकारे उपकार करणाऱ्या प्राण्यांना कोणत्याही माणसाने मारू नये तर त्याचे चांगल्या प्रकारे रक्षण करून त्यांच्यापासून लाभ घ्यावा व सर्व माणसांना आनंदी करावे. ज्या जंगली पशुपासून गावातील पाळीव प्राणी, शेती व माणसे यांची हानी होते त्यांना राजपुरुषांनी बंदिस्त करावे व त्यांचा नाश करावा.
विषय
मनुष्यांनी काय केले पाहिजे, आता याविषयी पुढील मंत्रात सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (प्रजाजनांद्वारे अथवा विद्वान मनुष्यांद्वारे राजाप्रती केलेली प्रार्थना हे (अग्ने) (अग्नीप्रमाणे तेजस्वी असा) मनुष्य जन्म मिळालेल्या हे राजन्, आपण (मेधाष) सुखप्राप्तीकरिता (राष्ट्राच्या प्रगतीकरिता) (चीयमान:) सतत प्रगतीशील रहा. (सहस्राक्ष:) आपण हजार दृष्टी असलेले (सर्वत्र निरीक्षण करणारी जागरूक वृत्ती असलेले) आहात. (इमम्) या (द्विपावम्) दो पाय असलेल्या मनुष्य आदी प्राण्यांना तसेच (मेधम्) पवित्र, फलप्रद व लाभकारी (मयुम्) वन्य (पशुम्) गय आदी उपयोगी पशूंना (मा) हिंसी:) मारूं नका (या वन्य तथापि उपयोगी प्राण्यांचे सर्वथा रक्षण करा) उलट त्या (पशूम्) पशूंची (जुषस्त) सेवा करा (त्यांची वृद्धी होईल, राष्ट्रातील वन्यपशुसंपदा वाढेल, असे यत्न करा) (ठेन) त्या पुश-प्राण्यांच्या वृद्धीमुळे (चिन्वान्) वृद्धींगत होत आपण (तन्व:) आपल्या शरीरात (निषीद) स्थिर रहा (शरीरप्रकृती उत्तम ठेवा) (ते) आपणाकडून (शुक्) दु:खारी आणि (मयुम्) पिकांची नासाडी करणाऱ्या वन्य पशूंना (ऋच्छतु) दु:ख प्राप्त होवो (उपद्रवी आरण्य पशूंना मारा) (ते) आपल्या (यम्) ज्या शत्रूचा आम्ही (द्विष्म:) द्वेष करतो, (तम्) शत्रूदेखील तुमच्या (शुक्र) शोकाचा, (दु:ख अथवा क्रोधाचा) (ऋच्छतु) विषय होवो (आमच्या आणि तुमच्या उपद्रवी शत्रूचा तुम्ही विनाश करा) ॥47॥
भावार्थ
भावार्थ - कुणीही सर्वांवर उपकार करणाऱ्या पशूंचा वध कदापि करू नये. उलट त्यांचे चांगल्याप्रकारे संगोपन, पालन करावे. त्या पशूंपासून लाभ घेत सर्व मनुष्यांना आनंदित करावे. वनातील ज्या पशूंमुळे ग्राम्य पशु-प्राण्यांना तसेच शेती व माणसें यांना हानी होत असेल, राजपुरुषांनी अशा वन्यपशूंना मारावे वा बांधून, कोडून ठेवावे. ॥47॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O King, born as man, and wide-awake, possessing thousand fold vision, progressing for the attainment of happiness, dont destroy the bipeds and quadrupeds, and useful denizens of the forest ; but protect them. Increase thy wealth with those cattle, and possess a strong body. The injurious beast of the forest should be put to grief by thee. Let thy enemy, whom we dislike, be put to grief.
Meaning
Agni/Ruler/Noble man or woman, growing and progressing in happiness, watchful with the vision of a thousand eyes, hurt not the humans, kill not the animals. Love and look after the wild as well as the domestic animals, both holy and serviceable. Working and progressing by that animal wealth, feel settled, be at peace with yourself. Let your concern address the wild animals, or let it be directed to those who hurt us.
Translation
О thousand-eyed fire divine, being consecrated for the sacrifice, may you not injure this biped animal (i. e. man). May you consume the mayu (the precursor of man) and flourishing thereon may you be seated here. May your burning heat go to the mayu; may your burning heat go to him whom we hate. (1)
Notes
In this and the next four mantras a prayer has been made to save some animals and offering their substitutes to fire. Dvipadain pagum, द्विपाद्वा एष पशुर्यत्पुरुष:, man is verily the biped animal. Medhaya, यज्ञाय, for the sacrifice. Ciyamànah, वर्धमान:, being built up; being fuelled. Mayum, किम्पुरुषो वै मयु: ‚ kimpuruѕа is mayu. (Satapatha, VII. 5. 2. 32),किमयमपि पुरुष: इति भ्रांति: यस्मिन स: किम्पुरुष: about whom there is doubt whether this also ts man; an animal resembling man very much, perhaps an ape; precursor of man. Tanvah,तनू: ज्वालारूपा:, your bodies in the form of flames. Suk, शोक: संतापो वा, flame or heat; sorrow. Yam dvismah, whom we hate.
बंगाली (1)
विषय
পুনর্মনুষ্যেণ কিং কার্য়্যমিত্যাহ ॥
পুনঃ মনুষ্যদিগকে কী করা উচিত, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (অগ্নে) মনুষ্য জন্মপ্রাপ্ত (মেধায়) সুখ প্রাপ্তি হেতু (চীয়মানঃ) বর্দ্ধমান (সহস্রাক্ষঃ) অসংখ্য দৃষ্টি যুক্ত রাজন্! তুমি (ইমম্) এই (দ্বিপাদম্) দুই পদযুক্ত মনুষ্যাদি এবং (মেধম্) পবিত্রকারক ফলপ্রদ (ময়ুম্) বন্য (পশুম্) গবাদি পশু জীবকে (মা) না (হিংসীঃ) মারিও । সেই (পশুম্) পশুর (জুষস্ব) সেবা কর (তেন) সেই পশু দ্বারা (চিন্বানঃ) বর্দ্ধমান তুমি (তন্বঃ) শরীরে (নিষীদ) নিরন্তর স্থির হও এই (তে) তোমার হইতে (শুক্) শোক (ময়ুম্) শস্যাদিবিনাশক বন্য পশুকে (ঋচ্ছতু) প্রাপ্ত হউক (তে) তোমার (য়ম্) যে শত্রুকে আমরা (দ্বিষ্মঃ) দ্বেষ করি (তম্) তাহাকে (শুক্) শোক (ঋচ্ছতু) প্রাপ্ত হউক ॥ ৪৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- কোন মনুষ্য সকলের উপকারী পশুদিগকে কখনও মারিবে না কিন্তু ইহাদের সম্যক্ প্রকারে রক্ষা করিবে এবং ইহা দ্বারা উপকার লইয়া সকল মনুষ্যকে আনন্দ দান করিবে । যে বন্য পশুগুলির দ্বারা গ্রামের পশু, কৃষি ও মনুষ্যের ক্ষতি হয় উহাদিগকে রাজপুরুষ মারিবে বা বন্ধন করিয়া রাখিবে ॥ ৪৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ই॒মং মা হি॑ꣳসীর্দ্বি॒পাদং॑ প॒শুꣳ স॑হস্রা॒ক্ষো মেধা॑য় চী॒য়মা॑নঃ ।
ম॒য়ুং প॒শুং মেধ॑মগ্নে জুষস্ব॒ তেন॑ চিন্বা॒নস্ত॒ন্বো᳕ নি ষী॑দ ।
ম॒য়ুং তে॒ শুগৃ॑চ্ছতু॒ য়ং দ্বি॒ষ্মস্তং তে॒ শুগৃ॑চ্ছতু ॥ ৪৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ইমং মেত্যস্য বিরূপ ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । বিরাড্ ব্রাহ্মী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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