यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 11
ऋषिः - वामदेव ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
136
प्रति॒ स्पशो॒ विसृ॑ज॒ तूर्णि॑तमो॒ भवा॑ पा॒युर्वि॒शोऽ अ॒स्या अद॑ब्धः। यो नो॑ दू॒रेऽ अ॒घश॑ꣳसो॒ योऽ अन्त्यग्ने॒ माकि॑ष्टे॒ व्यथि॒राद॑धर्षीत्॥११॥
स्वर सहित पद पाठप्रति॑। स्पशः॑। वि। सृ॒ज॒। तूर्णि॑तम॒ इति॒ तूर्णि॑ऽतमः। भव॑। पा॒युः। वि॒शः। अ॒स्याः। अद॑ब्धः। यः। नः॒। दू॒रे। अ॒घश॑ꣳस॒ इत्य॒घऽश॑ꣳसः। यः। अन्ति॑। अग्ने॑। माकिः॑। ते॒। व्यथिः॑। आ। द॒ध॒र्षी॒त् ॥११ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रति स्पशो विसृज तूर्णितमो भवा पायुर्विशो अस्याऽअदब्धः । योनो दूरेऽअघशँसो योऽअन्त्यग्ने माकिष्टे व्यथिरादधर्षीत् ॥
स्वर रहित पद पाठ
प्रति। स्पशः। वि। सृज। तूर्णितम इति तूर्णिऽतमः। भव। पायुः। विशः। अस्याः। अदब्धः। यः। नः। दूरे। अघशꣳस इत्यघऽशꣳसः। यः। अन्ति। अग्ने। माकिः। ते। व्यथिः। आ। दधर्षीत्॥११॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे अग्ने! ते तव नोऽस्माकं च यो व्यथिरघशंसो दूरे योऽन्त्यस्ति, यथा सोऽस्मान् माकिरादधर्षीत्, तं प्रति त्वं तूर्णितमः सन् स्पशो विसृज अस्या विशः पायुरदब्धो भव॥११॥
पदार्थः
(प्रति) (स्पशः) बाधनानि (वि) (सृज) (तूर्णितमः) अतिशयेन त्वरिता (भव) द्व्यचोऽतस्तिङः [अष्टा॰६.३.१३५] इति दीर्घः। (पायुः) रक्षकः (विशः) प्रजायाः (अस्याः) वर्त्तमानायाः (अदब्धः) अहिंसकः (यः) (नः) अस्माकम् (दूरे) विप्रकृष्टे (अघशंसः) योऽघं पापं कर्तुं शंसति स स्तेनः (यः) (अन्ति) निकटे (अग्ने) अग्निवच्छत्रुदाहक (माकिः) निषेधे। अत्र मकि धातोर्बाहुलकादिञ् नुमभावश्च (ते) तव (व्यथिः) व्यथकः शत्रुः (आ) (दधर्षीत्) धर्षेत्। अत्र वाच्छन्दसि [अष्टा॰वा॰६.१.८] इति द्विर्वचनम्॥११॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये निकटदूरस्थाः प्रजाभ्यो दुःखप्रदा दस्यवः सन्ति, तान् राजादयः सामदामदण्डभेदैः सद्यो वशं नीत्वा दयान्यायाभ्यां धार्मिकीः प्रजाः सततं पालयेयुः॥११॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के समान शत्रुओं के जलाने वाले पुरुष! (ते) आपका और (नः) हमारा (यः) जो (व्यथिः) व्यथा देने हारा (अघशंसः) पाप करने में प्रवृत्त चोर शत्रुजन (दूरे) दूर तथा (यः) जो (अन्ति) निकट है, जैसे वह हम लोगों को (माकिः) नहीं (आ, दधर्षीत्) दुःख देवे, उस शत्रु के (प्रति) प्रति आप (तूर्णितमः) शीघ्र दण्डदाता होके (स्पशः) बन्धनों को (विसृज) रचिये और (अस्याः) इस वर्त्तमान (विशः) प्रजा के (पायुः) रक्षक (अदब्धः) हिंसारहित (भव) हूजिये॥११॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो समीप वा दूर रहने वाले प्रजाओं के दुःखदायी डाकू हैं, उनको राजा आदि पुरुष साम, दाम, दण्ड और भेद से शीघ्र वश में लाके दया और न्याय से धर्मयुक्त प्रजाओं की निरन्तर रक्षा करें॥११॥
विषय
प्रजा के कष्ट का श्रवण करके राजा' का दूत प्रेषण और प्रजापालन का यत्न ।
भावार्थ
(यः अघशंसः) जो पापाचरण करने को कहता है वह ( यः ) और जो (नः) हमारे से (दूरे) दूर है और (यः) जो (अभि) हमारे पास हैं हे ( अग्ने ) अग्रनायक राजन् ! वह भी ( व्यथिः ) हमें व्यथादायी होकर (ते) तेरा ( मा आदधर्षीत् ) आज्ञा भंग कर अपमान न कर सके। इसलिये तू (तुर्णितमः) अति वेगवान् होकर (स्पशः) प्रतिहिंसक योद्धा, प्रतिभटों को और अपने दूतों को ( प्रति विसृज ) शत्रु के प्रति भेज और स्वयं ( अदब्धः ) शत्रु से मारा न जा कर सुरक्षित रहकर ( अस्याः विश: ) इस प्रजा का ( पायुः ) पालन करने हारा ( भव ) हो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः । अग्निर्देवता | त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
प्रजा-रक्षण, शत्रु संहार
पदार्थ
१. जैसे वामदेव ने अध्यात्मक्षेत्र में कामादि शत्रुओं का संहार करना है, उसी प्रकार राजा ने आधिभौतिक क्षेत्र में राष्ट्र के शत्रुओं का संहार करना है। उसके लिए कहते हैं कि (स्पशः) = गुप्तचरों को (प्रतिविसृज) = प्रत्येक दिशा में भेज। प्रजा के गुण-दोषों के परिज्ञान के लिए ये गुप्तचर ही राजा की आँख होते हैं । २. (तूर्णितमः भव) = तू अपने कार्यों को (त्वरा) = से करनेवाला हो। आलस्य कार्य सफलता में महान् विघ्न है । ३. तू (अदब्धः) = स्वयं किन्हीं वासनाओं व आलस्यादि शत्रुओं से हिंसित न होता हुआ (अस्याः विश:) = इस प्रजा का (पायुः) = रक्षक हो। ४. (अघशंसः) = बुराई का शंसन करनेवाला (नः) = हमारा (यः) = जो शत्रु (दूरे) = दूरी पर स्थित है (यः अन्ति) = जो समीप है, अग्ने हे राष्ट्रोन्नति के साधक राजन् ! वह (व्यथिः) = पीड़ित करनेवाला शत्रु (ते) = तेरा (माकिः आदधर्षीत्) = धर्षण न करे। राजा किसी भी शत्रु से पराजित न होता हुआ प्रजा की रक्षा करनेवाला हो। राजा से सम्यक्तया रक्षित प्रजा में ही सद्गुणों का विकास सम्भव है।
भावार्थ
भावार्थ - राजा स्वयं आलस्यादि शत्रुओं से मुक्त होता हुआ प्रजा की शत्रुओं से रक्षा करे, जिससे सुरक्षित प्रजाएँ उन्नति पथ पर आगे बढ़नेवाली बनें।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे जवळ किंवा दूर असणारे डाकू प्रजेला त्रास देतात त्यांचा राजाने साम, दाम, दंड, भेद इत्यादींनी ताबडतोब बंदोबस्त करून दयाळूपणाने व न्यायाने प्रजेचे रक्षण करावे.
विषय
पुनश्च, सेनापती कसा असावा, याविषयी पुढील मंत्रात वर्णन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (प्रजाजन सेनापतीस उद्देशून म्हणत आहेत) (अग्ने) अग्नी जसा वस्तूंना, तसे शत्रूंना जाळणारे हे सेनापती, (ते) तुम्हाला आत्रण (न:) आम्हाला (य:) जो (व्यथि:) न्यथित करणारा आणि (अघशंस:) पापकर्माकडे प्रवृत्त करणारा शत्रू आहेत, तो (दूरे दूर) असोत वा (य:) जो (अन्ति) निकट असो, तो कुमार्गी अहितकारी दुष्ट आम्हाला (माकि:) (आ) (दधर्षीत्) दु:ख देऊ शकणार नाही, असे करा (त्यास दूर ठेवा वा मारा) तसेच त्या शत्रू (प्रति) विषयी आपण (तूर्णितम:) शीघ्र दंड देणारे व्हा आणि त्यासाठी (स्पश:) विविध बंधने करा (अनेकप्रकारे त्यास काबूत आणा) अशाप्रकारे विविध बंधने करा (अनेकप्रकारे त्यास काबूत आणा) अशाप्रकारे (अस्था:) या विद्यमान (विश:) प्रजेचे (पायु:) रक्षक व्हा आणि आम्हांस (अदब्ध:) हिंसा वा कष्ट न देणारे (भव) व्हा ॥11॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. प्रजाजनांना व्यथित पीडित करणारे जे जवळ राहणारे अथवा दूर राहणारे लुटारू, दरोडेखोर आहेत (वा असतात) राजा आदी राजपुरुषांनी अशा दुष्टांना साम, दाम, दंड आणि भेद या उपायांद्वारे शीघ्र काबूत आणावे आणि अशाप्रकारे दया व न्यायपूर्ण आचरणाद्वारे धार्मिक प्रजाजनांचे निरंतर रक्षण करावे. ॥11॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O destroyer of foes like fire, put shackles on and speedily punish the troublesome evil-minded enemy of yours and ours, may he be far or near, so that he may not harm us. May thou be the harmless guardian of the people of thine.
Meaning
Agni, instant in action, bold and inviolable, if there is a tormentor or a wicked maligner or a supporter of sin and crime far or near against you or against us, release the forces to seize him and remove the obstacles. Be the protector and guardian of this people/community. Let none bully or terrorize you and us.
Translation
O fire-divine, may you with your most rapid motion direct your radiant flames all around, and unresisted, become the protector of your people. Let no malevolent miscreant, whether remote or high, prevail against us, your worshippers. (1)
Notes
Spaso visrja, send spies. स्पश: स्पशंति बध्नंति इति स्पश:, those who bind rivals; Spies; reconnoitring units. Türnitamah, quickest in your movements. Payuh, पालयिता, supporter; sustainer. Vyathih, व्यथयति इति व्यथि: श्त्रु:, one that causes distress, i. e. enemy. Ma adadharsit, may not become an arrogant rival to you; may not challenge your authority. Yo diire yo anti, one that is distant and one that is near. Kih, कष्चित्, any one. Agha$arnsah, पापस्य उत्कीर्तनो दुर्जन:, an evil person, who praises evil. Or, अघं पापं शंशति इच्छति स: अघंशंस: अस्मद्द्रोही, one who wishes ill for us; a wicked enemy.
बंगाली (1)
विषय
পুনঃ স কীদৃশো ভবেদিত্যুপদিশ্যতে ॥
পুনঃ সে কীরকম হইবে, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (অগ্নে) অগ্নিসম শত্রুদহনকারী পুরুষ ! (তে) আপনার এবং (নঃ) আমাদের (য়ঃ) যে (ব্যথিঃ) ব্যথা দানকারী (অঘশংস) পাপ করিতে প্রবৃত্ত চোর, শত্রু (দূরে) তথা (য়ঃ) যে (অন্তি) নিকটে আছে যেমন সে আমাদিগকে (মাকিঃ) না (আ, দধর্ষীৎ) দুঃখ প্রদান করিবে সেই শত্রুর (প্রতি) প্রতি আপনি (তূর্ণিতমঃ) শীঘ্র দন্ডদাতা হইয়া (স্পশঃ) বন্ধনগুলিকে (বিসৃজ) রচনা করুন এবং (অস্যাঃ) এই বর্ত্তমান (বিশঃ) প্রজার (পায়ুঃ) রক্ষক (অদব্ধঃ) হিংসারহিত (ভব) হউন ॥ ১১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে সমীপ বা দূরে থাকা প্রজাদের দুঃখদায়ী ডাকাইত তাহাদেরকে রাজাদি পুরুষ সাম, দাম, দন্ড ও ভেদ দ্বারা শীঘ্র বশে আনিয়া দয়া ও ন্যায়পূর্বক ধর্মযুক্ত প্রজাদিগকে নিরন্তর রক্ষা করুন ॥ ১১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
প্রতি॒ স্পশো॒ বি সৃ॑জ॒ তূর্ণি॑তমো॒ ভবা॑ পা॒য়ুর্বি॒শোऽ অ॒স্যা অদ॑ব্ধঃ ।
য়ো নো॑ দূ॒রেऽ অ॒ঘশ॑ꣳসো॒ য়োऽ অন্ত্যগ্নে॒ মাকি॑ষ্টে॒ ব্যথি॒রা দ॑ধর্ষীৎ ॥ ১১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
প্রতি স্পশ ইত্যস্য বামদেব ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃৎত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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