यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 2
ऋषिः - वत्सार ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - विराट् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
185
अ॒पां पृ॒ष्ठम॑सि॒ योनि॑र॒ग्नेः स॑मु॒द्रम॒भितः॒ पिन्व॑मानम्। वर्ध॑मानो म॒हाँ२ऽआ च॒ पुष्क॑रे दि॒वो मात्र॑या वरि॒म्णा प्र॑थस्व॥२॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पाम्। पृ॒ष्ठम्। अ॒सि॒। योनिः॑। अ॒ग्नेः। स॒मु॒द्रम्। अ॒भितः॑। पिन्व॑मानम्। वर्ध॑मानः। म॒हान्। आ। च॒। पुष्क॑रे। दि॒वः। मात्र॑या। व॒रि॒म्णा। प्र॒थ॒स्व॒ ॥२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपाम्पृष्ठमसि योनिरग्नेः समुद्रमभितः पिन्वमानम् । वर्धमानो महाँऽआ च पुष्करे दिवो मात्रया वरिम्णा प्रथस्व ॥
स्वर रहित पद पाठ
अपाम्। पृष्ठम्। असि। योनिः। अग्नेः। समुद्रम्। अभितः। पिन्वमानम्। वर्धमानः। महान्। आ। च। पुष्करे। दिवः। मात्रया। वरिम्णा। प्रथस्व॥२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमेश्वरोपासनाविषयमाह॥
अन्वयः
हे विद्वन्! यस्त्वमभितोऽपां पृष्ठं समुद्रं पिन्वमानमग्नेर्योनिर्दिवो मात्रया पुष्करे वर्धमानो महाँश्चासि सोऽस्मासु वरिम्णाऽऽप्रथस्व॥२॥
पदार्थः
(अपाम्) व्यापकानां प्राणानां जलानां वा (पृष्ठम्) अधिकरणम् (असि) (योनिः) कारणम् (अग्नेः) विद्युदादेः (समुद्रम्) अन्तरिक्षमिव सागरम् (अभितः) सर्वतः (पिन्वमानम्) सिञ्चमानम् (वर्धमानः) सर्वथोत्कृष्टः (महान्) सर्वेभ्यो वरीयान् सर्वैः पूज्यश्च (आ) (च) (पुष्करे) अन्तरिक्षे। पुष्करमित्यन्तरिक्षनामसु पठितम्॥ (निघं॰१।३) (दिवः) द्योतमानस्य (मात्रया) यया सर्वं मिमीते (वरिम्णा) अतिशयेनोरुर्बहुस्तेन व्यापकत्वेन (प्रथस्व) प्रख्यातो भव। [अयं मन्त्रः शत॰७.४.९.१ व्याख्यातः]॥२॥
भावार्थः
मनुष्यैर्यत् सच्चिदानन्दस्वरूपमखिलस्य जगतो निर्मातृ सर्वत्राभिव्याप्तं सर्वेभ्यो वरं सर्वशक्तिमद् ब्रह्मैवोपास्य सकलविद्याः प्राप्यन्ते, तत् कथं न सेवितव्यं स्यात्॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
अब परमेश्वर की उपासना का विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे विद्वान् पुरुष! जो तू (अभितः) सब ओर से (अपाम्) सर्वत्र व्यापक परमेश्वर आकाश दिशा बिजुली और प्राणों वा जलों के (पृष्ठम्) अधिकरण (समुद्रम्) आकाश के समान सागर (पिन्वमानम्) सींचते हुए समुद्र को (अग्नेः) बिजुली आदि अग्नि के (योनिः) कारण (दिवः) प्रकाशित पदार्थों का (मात्रया) निर्माण करनेहारी बुद्धि से (पुष्करे) हृदयरूप अन्तरिक्ष में (वर्धमानः) उन्नति को प्राप्त हुए (च) और (महान्) सब श्रेष्ठ वा सब के पूज्य (असि) हो, सो आप हमारे लिये (वरिम्णा) व्यापकशक्ति से (आ, प्रथस्व) प्रसिद्ध हूजिये॥२॥
भावार्थ
मनुष्यों को जिस सत्, चित् और आनन्दस्वरूप, सब जगत् का रचने हारा, सर्वत्र व्यापक, सब से उत्तम और सर्वशक्तिमान् ब्रह्म की उपासना से सम्पूर्ण विद्यादि अनन्त गुण प्राप्त होते हैं, उसका सेवन क्यों न करना चाहिये॥२॥
विषय
ब्रह्म शक्ति का वर्णन ।
भावार्थ
व्याख्या देखो ( ० १ । २६ ) । शत० ७ । ४ । १ । ६ ॥
विषय
प्रभु की महिमा
पदार्थ
१. मन्त्र का ऋषि 'वत्सार' प्रभु को अपने में धारण करना चाहता है। गत मन्त्र में उसने स्पष्ट कहा है कि मेरी सर्वप्रथम इच्छा यही है कि मैं अपने अन्दर प्रभु को ग्रहण करूँ, अत: वह प्रभु का स्तवन करता हुआ कहता है कि (अपां पृष्ठम् असि) = आप जलों के आधार हो । 'वरुण' नाम से आप जलों के पतिरूप में कहे जाते हो। आपका नाम ही 'अप्पति' हो गया है। ये जल अपनी अद्भुत रचना से हमें आपकी महिमा का स्मरण कराते हैं। जल की अवयवभूत 'उद्रजन' ज्वलनशील है 'अम्लजन' ज्वलन की पोषक है। इन्हें मिलानेवाली विद्युत् है। एवं सब अग्नि-ही-अग्नि है, परन्तु इनसे उत्पन्न होनेवाला जल अग्नि को शान्त करनेवाला है, इस प्रकार उष्णता से शीतता की उत्पत्ति होती है। कितना आश्चर्य है! २. (अग्नेः योनिः) = हे प्रभो ! आप ही अग्नि के भी उत्पत्तिकारण हैं। अग्नि को भी आप ही जन्म देते हैं। द्युलोक में यह अग्नि सूर्यरूप से है, अन्तरिक्षलोक में विद्युद्रूप से और इस पृथिवी पर उसका नाम 'अग्नि' है। एवं लोकत्रयी में व्याप्त होनेवाली अग्नि वस्तुत: 'जातवेद' है - प्रत्येक पदार्थ में विद्यमान है। ३. (अभितः) = पृथिवी पर चारों ओर से (पिन्वमानम्) = नदी - जलों से सींचे जाते हुए अथवा बढ़ते हुए (समुद्रम्) = समुद्र को (वर्धमानः) = बढ़ानेवाले आप ही हो। वृष्टि के द्वारा नदियाँ प्रवाहित होती हैं। इन नदियों से समुद्र का पूरण होता है। ४. (महान्) = हे प्रभो! आप सचमुच महान् हो । क्या जल, क्या अग्नि, क्या समुद्र - सभी आपकी महिमा का गायन करते हैं । ५. हे प्रभो! आप (पुष्करे) = कमलवत् निर्लेप मेरे हृदयाकाश में, अथवा आपकी भावना का पोषण करनेवाले इस हृदय में (दिवः मात्रया) = ज्ञान की मात्रा से, ज्ञान की मापनशक्ति से तथा (वरिम्णा) = विस्तार से, उदारता से (आप्रथस्व) = व्याप्त होओ, प्रसिद्ध होओ, विस्तृत होओ, अर्थात् मैं ज्ञान तथा हृदय की विशालता और पवित्रता से आपका दर्शन कर पाऊँ ।
भावार्थ
भावार्थ-जलों में, अग्नि में व समुद्रों में प्रभु की महिमा का प्रकाश हो रहा है। मैं अपने ज्ञान को बढ़ाकर पवित्र व विशाल हृदय में प्रभु का दर्शन करूँ ।
मराठी (2)
भावार्थ
सत् चित् आनंदस्वरूप, सृष्टिकर्ता, सर्वव्यापक, सर्वश्रेष्ठ, सर्वशक्तिमान, ब्रह्माची उपासना करून माणसांना जर संपूर्ण विद्या इत्यादी अनंत गुण प्राप्त होतात, तर त्याची भक्ती का करू नये?
विषय
पुढील मंत्रात परमेश्वराच्या उपासनेविषयी सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - परम पुरुषा (सर्वज्ञानी परमेश्वरा) तूच (अभित:) सर्वदिशांत असून सर्वत्रव्यापक आहेस. (अपाम्) आकाश, दिशा, विद्युत, प्राण अथवा जलाचा तूच (पृष्ठम्) आधार आहेस. (समुद्रम्) आकाश जसे सागराला आणि सागर जसे आकाशाला (पिन्वमानम्) सिंचित करतो. (ती तुझीच लीला आहे) अशा (अग्ने:) विद्युत आदी अग्नीच विविध रुपांचे (योनि:) कारण असलेल्या (दिव:) प्रत्यक्ष पदार्थांचा (मात्रया) आपल्या ज्ञान सामर्थ्याने निर्माण करणाऱ्या, (पुष्करे) हृदयरूप अंतरिक्षात (वर्धमान:) वृद्धींगत (होत अनुभुत) होणाऱ्या (परमेश्वराची आम्ही उपासना करतो) हे परमेश्वरा, (च) आणि (महान्) तूच सर्वांहून श्रेष्ठ वा सर्वांना पूज (असि) आहेस. तू आम्हा उपासकांच्या (हृदयात) आपल्या (वरिम्णा) व्यापकत्वशक्तीद्वारे (आ प्रथस्व) प्रकट हो (हृदयात अनुभूत हो) ॥2॥
भावार्थ
भावार्थ - ज्या सत्, चित् आणि आनंद स्वरूप परमेश्वराच्या, सर्व जगदुत्पादकाच्या, सर्वत्र व्यापक असलेल्या, सर्वोत्तम सर्वशक्तिमान परमेश्वराची उपासना केल्याने समस्त विद्यादी अनंत गुणांची प्राप्ती होते, त्याची उपासना मनुष्यांनी का बरे करूं नये! (अर्थात अवश्य करावी) ॥2॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O God, Thou art the Support of waters, the Cause of fire, the Enveloper of ocean as it swells and surges, the Loftiest of all, Worthy of adoration by humanity, and full of Majesty in space. Shine forth for us with Omnipresence and Omniscience.
Meaning
Lord Almighty, infinite spirit and life of the universe, you are the centre-hold of waters and energy. You are the original cause of heat and light. Surrounding and feeding the expansive oceans on earth and in space from all sides, you are great and ever greater in the intervening spaces between earth and heaven. And you reveal your glory by the measure and immensity of the light of heaven.
Translation
You are the surface of the waters, and the birth-place of fire; you flourish all around the ocean. Waxing greatly around the mid-space, spread throughout the heaven’s measure with your immensity. (1)
Notes
With this mantra the adhvaryu priest lays down a lotus-leaf. Repeated from Yaju. ХІ. 29.
बंगाली (1)
विषय
অথ পরমেশ্বরোপাসনাবিষয়মাহ ॥
এখন পরমেশ্বরের উপাসনার বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে বিদ্বন্ পুরুষ ! আপনি (অভিতঃ) সব দিক হইতে (অপাম্) সর্বত্রব্যাপক প্রাণ বা জলের (পৃষ্ঠম্) অধিকরণ (সমুদ্রম্) আকাশ সম সমুদ্র (পিন্বমানম্) সিঞ্চমান সমুদ্রকে (অগ্নেঃ) বিদ্যুতাদি অগ্নির (য়োনিঃ) কারণ (দিবঃ) প্রকাশিত পদার্থের (মাত্রয়া) নির্মাণকারিণী বুদ্ধি দ্বারা (পুষ্করে) হৃদয়রূপ অন্তরিক্ষে (বর্ধমানঃ) বর্ধমান (চ) এবং (মহান্) সর্বাপেক্ষা শ্রেষ্ঠ বা সর্বপূজ্য (অসি) হউন সুতরাং আপনি আমাদের জন্য (বরিম্ণা) ব্যাপকশক্তি দ্বারা (আ, প্রথস্ব) প্রসিদ্ধ হউন ॥ ২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগকে যিনি সৎ, চিৎ ও আনন্দস্বরূপ, সকল জগতের রচয়িতা সর্বত্র ব্যাপক, সর্বাপেক্ষা উত্তম ও সর্বশক্তিমান ব্রহ্মেরই উপাসনা দ্বারা সম্পূর্ণ বিদ্যাদি অনন্ত গুণ প্রাপ্ত হয়, উহার সেবন কেন করা উচিত নহে ॥ ২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অ॒পাং পৃ॒ষ্ঠম॑সি॒ য়োনি॑র॒গ্নেঃ স॑মু॒দ্রম॒ভিতঃ॒ পিন্ব॑মানম্ ।
বর্ধ॑মানো ম॒হাঁ২ऽআ চ॒ পুষ্ক॑রে দি॒বো মাত্র॑য়া বরি॒ম্ণা প্র॑থস্ব ॥ ২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অপাং পৃষ্ঠমিত্যস্য বৎসার ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । বিরাট্ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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