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यजुर्वेद अध्याय - 13

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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 53
    ऋषिः - उशना ऋषिः देवता - आपो देवताः छन्दः - ब्राह्मी पङ्क्तिः, ब्राह्मी जगती स्वरः - पञ्चमः, निषादः
    143

    अ॒पां त्वेम॑न्त्सादयाम्य॒पां त्वोद्म॑न्सादयाम्य॒पां त्वा॒ भस्म॑न्त्सादयाम्य॒पां त्वा॒ ज्योति॑षि सादयाम्य॒पां त्वाय॑ने सादयाम्यर्ण॒वे त्वा॒ सद॑ने सादयामि समु॒द्रे त्वा॒ सद॑ने सादयामि। सरि॒रे त्वा॒ सद॑ने सादयाम्य॒पां त्वा॒ क्षये॑ सादयाम्य॒पां त्वा॒ सधि॑षि सादयाम्य॒पां त्वा॒ सद॑ने सादयाम्य॒पां त्वा॑ स॒धस्थे॑ सादयाम्य॒पां त्वा॒ योनौ॑ सादयाम्य॒पां त्वा॒ पुरी॑षे सादयाम्य॒पां त्वा॒ पाथ॑सि सादयामि। गाय॒त्रेण॑ त्वा॒ छन्द॑सा सादयामि॒ त्रैष्टु॑भेन त्वा॒ छन्द॑सा सादयामि॒ जाग॑तेन त्वा॒ छन्द॑सा सादया॒म्यानु॑ष्टुभेन त्वा॒ छन्द॑सा सादयामि॒ पाङ्क्ते॑न त्वा॒ छन्द॑सा सादयामि॥५३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पाम्। त्॒वा। एम॑न् सा॒द॒या॒मि॒। अ॒पाम् त्वा॒ ओद्म॑न्। सा॒द॒या॒मि॒। अ॒पाम्। त्वा॒। भस्म॑न्। सा॒द॒या॒मि॒। अ॒पाम्। त्वा॒। ज्योति॑षि। सा॒द॒या॒मि॒। अ॒पाम्। त्वा॒। अय॑ने। सा॒द॒या॒मि॒। अ॒र्ण॒वे। त्वा॒। सद॑ने। सा॒द॒या॒मि॒। स॒मु॒द्रे। त्वा॒। सद॑ने। सा॒द॒या॒मि॒। स॒रि॒रे। त्वा॒। सद॑ने। सा॒द॒या॒मि॒। अ॒पाम्। त्वा॒। क्षये॑। सा॒द॒या॒मि॒। अ॒पाम्। त्वा॒। सधि॑षि। सा॒द॒या॒मि॒। अ॒पाम्। त्वा॒। सद॑ने। सा॒द॒या॒मि। अ॒पाम्। त्वा॒। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धऽस्थे॑। सा॒द॒या॒मि॒। अ॒पाम्। त्वा॒। योनौ॑। सा॒द॒या॒मि॒। अ॒पाम्। त्वा॒। पुरी॑षे। सा॒द॒या॒मि॒। अ॒पाम्। त्वा॒। पाथ॑सि। सा॒द॒या॒मि॒। गा॒य॒त्रेण॑। त्वा॒। छन्द॑सा। सा॒द॒या॒मि॒। त्रैष्टु॑भेन। त्रैस्तु॑भे॒नेति॒ त्रैऽस्तु॑भेन। त्वा॒। छन्द॑सा। सा॒द॒या॒मि॒। जाग॑तेन। त्वा॒। छन्द॑सा। सा॒द॒या॒मि॒। आनु॑ष्टुभेन। आनु॑स्तुभे॒नेत्यानु॑ऽस्तुभेन। त्वा॒। छन्द॑सा। सा॒द॒या॒मि॒। पाङ्क्ते॑न। त्वा॒। छन्द॑सा। सा॒द॒या॒मि॒ ॥५३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपान्त्वेमन्त्सादयाम्यपान्त्वोद्मन्त्सादयाम्यापान्त्वा भस्मन्त्सादयाम्यापान्त्वा ज्योतिषि सादयाम्यापान्त्वायने सादयाम्यर्णवे त्वा सदने सादयामि । समुद्रे त्वा सदने सादयामि । सरिरे त्वा सदने सादयाम्यपान्त्वा क्षये सादयाम्यपान्त्वा सधिषि सादयाम्यपान्त्वा सदने सादयाम्यपान्त्वा सधस्थे सादयाम्यपान्त्वा योनौ सादयाम्यपान्त्वा पुरीषे सादयाम्यपान्त्वा पाथसि सादयामि गायत्रेण त्वा छन्दसा सादयामि त्रैष्टुभेन त्वा छन्दसा सादयामि जागतेन त्वा छन्दसा सादयाम्यानुष्टुभेन त्वा छन्दसा सादयामि पाङ्क्तेन त्वा छन्दसा सादयामि॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अपाम्। त्वा। एमन् सादयामि। अपाम् त्वा ओद्मन्। सादयामि। अपाम्। त्वा। भस्मन्। सादयामि। अपाम्। त्वा। ज्योतिषि। सादयामि। अपाम्। त्वा। अयने। सादयामि। अर्णवे। त्वा। सदने। सादयामि। समुद्रे। त्वा। सदने। सादयामि। सरिरे। त्वा। सदने। सादयामि। अपाम्। त्वा। क्षये। सादयामि। अपाम्। त्वा। सधिषि। सादयामि। अपाम्। त्वा। सदने। सादयामि। अपाम्। त्वा। सधस्थ इति सधऽस्थे। सादयामि। अपाम्। त्वा। योनौ। सादयामि। अपाम्। त्वा। पुरीषे। सादयामि। अपाम्। त्वा। पाथसि। सादयामि। गायत्रेण। त्वा। छन्दसा। सादयामि। त्रैष्टुभेन। त्रैस्तुभेनेति त्रैऽस्तुभेन। त्वा। छन्दसा। सादयामि। जागतेन। त्वा। छन्दसा। सादयामि। आनुष्टुभेन। आनुस्तुभेनेत्यानुऽस्तुभेन। त्वा। छन्दसा। सादयामि। पाङ्क्तेन। त्वा। छन्दसा। सादयामि॥५३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 53
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाध्येतृजनाध्यापकाः किमुपदिशेयुरित्याह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्य! यथा शिक्षकोऽहमपामेमंस्त्वा सादयाम्यपामोद्मंस्त्वा सादयाम्यपां भस्मंस्त्वा सादयाम्यपां ज्योतिषि त्वा सादयाम्यपामयने त्वा सादयाम्यर्णवे सदने त्वा सादयामि, समुद्रे सदने त्वा सादयामि, सरिरे सदने त्वा सादयाम्यपां क्षये त्वा सादयाम्यपां सधिषि त्वा सादयाम्यपां सदने त्वा सादयाम्यपां सधस्थे त्वा सादयाम्यपां योनौ त्वा सादयाम्यपां पुरीषे त्वा सादयाम्यपां पाथसि त्वा सादयामि, गायत्रेण छन्दसा त्वा सादयामि, त्रैष्टुभेन छन्दसा त्वा सादयामि, जागतेन छन्दसा त्वा सादयाम्यानुष्टुभेन छन्दसा त्वा सादयामि, पाङ्क्तेन छन्दसा त्वा सादयामि, तथैव वर्तस्व॥५३॥

    पदार्थः

    (अपाम्) प्राणानां रक्षणे (त्वा) त्वाम् (एमन्) एति गच्छति तस्मिन् वायौ (सादयामि) स्थापयामि (अपाम्) जलानाम् (त्वा) (ओद्मन्) ओषधिषु (सादयामि) (अपाम्) प्राप्तानां काष्ठादीनाम् (त्वा) (भस्मन्) भस्मन्यभ्रे। अत्र सर्वत्र सप्तमीलुक् (सादयामि) (अपाम्) व्याप्नुवतां विद्युदादीनाम् (त्वा) (ज्योतिषि) विद्युति (सादयामि) (अपाम्) अन्तरिक्षस्य (त्वा) (अयने) भूमौ (सादयामि) (अर्णवे) प्राणे (त्वा) (सदने) स्थातव्ये (सादयामि) (समुद्रे) मनसि (त्वा) (सदने) गन्तव्ये (सादयामि) (सरिरे) वाचि (त्वा) (सदने) प्राप्तव्ये (सादयामि) (अपाम्) प्राप्तव्यानां पदार्थानाम् (त्वा) (क्षये) चक्षुषि (सादयामि) (अपाम्) (त्वा) (सधिषि) समानान् शब्दान् शृणोति येन तस्मिन् श्रोत्रे (सादयामि) (अपाम्) (त्वा) (सदने) दिवि (सादयामि) (अपाम्) (त्वा) (सधस्थे) अन्तरिक्षे (सादयामि) (अपाम्) (त्वा) (योनौ) समुद्रे (सादयामि) (अपाम्) (त्वा) (पुरीषे) सिकतासु (सादयामि) (अपाम्) (त्वा) (पाथसि) अन्ने (सादयामि) (गायत्रेण) गायत्रीनिर्मितेन (त्वा) (छन्दसा) स्वच्छेनार्थेन (सादयामि) (त्रैष्टुभेन) त्रिष्टुप्प्रोक्तेन (त्वा) (छन्दसा) (सादयामि) (जागतेन) जगत्युक्तेन (त्वा) (छन्दसा) (सादयामि) (आनुष्टुभेन) अनुष्टुप्कथितेन (त्वा) (छन्दसा) (सादयामि) (पाङ्क्तेन) पङ्क्तिप्रकाशितेन (त्वा) (छन्दसा) (सादयामि) संस्थापयामि। [अयं मन्त्रः शत॰७.५.२.४६-६१ व्याख्यातः]॥५३॥

    भावार्थः

    विद्वद्भिः सर्वान् पुरुषान् स्त्रियश्च वेदानध्याप्य जगत्स्थानां वाय्वादिपदार्थानां विद्यासु निपुणीकृत्य तेभ्यः प्रयोजनसाधने प्रवर्तनीयाः॥५३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पढ़ने वालों को पढ़ाने वाले क्या उपदेश करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्य! जैसे शिक्षा करने वाला मैं (अपाम्) प्राणों की रक्षा के निमित्त (एमन्) गमनशील वायु में (त्वा) तुझ को (सादयामि) स्थापित करता हूं, (अपाम्) जलों की (ओद्मन्) आर्द्रतायुक्त ओषधियों में (त्वा) तुझ को (सादयामि) स्थापना करता हूं, (अपाम्) प्राप्त हुए काष्ठों की (भस्मन्) राख में (त्वा) तुझ को (सादयामि) संयुक्त करता हूं, (अपाम्) व्याप्त हुए बिजुली आदि अग्नि के (ज्योतिषि) प्रकाश में (त्वा) तुझ को (सादयामि) नियुक्त करता हूं, (अपाम्) अवकाश वाले (अयने) स्थान में (त्वा) तुझ को (सादयामि) बैठाता हूं, (सदने) स्थिति के योग्य (अर्णवे) प्राणविद्या में (त्वा) तुझ को (सादयामि) संयुक्त करता हूं, (सदने) गमनशील (समुद्रे) मन के विषय में (त्वा) तुझ को (सादयामि) सम्बद्ध करता हूं, (सदने) प्राप्त होने योग्य (सरिरे) वाणी के विषय में (त्वा) तुझ को (सादयामि) संयुक्त करता हूं, (अपाम्) प्राप्त होने योग्य पदार्थों के सम्बन्धी (क्षये) घर में (त्वा) तुझ को (सादयामि) स्थापित करता हूं, (अपाम्) अनेक प्रकार के व्याप्त शब्दों के सम्बन्धी (सधिषि) उस पदार्थ में कि जिससे अनेक शब्दों को समान यह जीव सुनता है अर्थात् कान के विषय में (त्वा) तुझ को (सादयामि) स्थित करता हूँ, (अपाम्) जलों के (सदने) अन्तरिक्षरूप स्थान में (त्वा) तुझ को (सादयामि) स्थापित करता हूं, (अपाम्) जलों के (सधस्थे) तुल्यस्थान में (त्वा) तुझ को (सादयामि) स्थापित करता हूं, (अपाम्) जलों के (योनौ) समुद्र में (त्वा) तुझ को (सादयामि) नियुक्त करता हूं, (अपाम्) जलों की (पुरीषे) रेती में (त्वा) तुझ को (सादयामि) नियुक्त करता हूं, (अपाम्) जलों के (पाथसि) अन्न में (त्वा) तुझ को (सादयामि) प्रेरणा करता हूं, (गायत्रेण) गायत्री छन्द से निकले (छन्दसा) स्वतन्त्र अर्थ के साथ (त्वा) तुझको (सादयामि) नियुक्त करता हूं, (त्रैष्टुभेन) त्रिष्टुप् मन्त्र से विहित (छन्दसा) शुद्ध अर्थ के साथ (त्वा) तुझ को (सादयामि) नियुक्त करता हूं, (जागतेन) जगती छन्द में कहे (छन्दसा) आनन्दायक अर्थ के साथ (त्वा) तुझ को (सादयामि) नियुक्त करता हूं, (आनुष्टुभेन) अनुष्टुप् मन्त्र में कहे (छन्दसा) शुद्ध अर्थ के साथ (त्वा) तुझ को (सादयामि) प्रेरणा करता हूं और (पाङ्क्तेन) पंक्ति मन्त्र से प्रकाशित हुए (छन्दसा) निर्मल अर्थ के साथ (त्वा) तुझ को (सादयामि) प्रेरित करता हूँ, वैसे ही तू वर्त्तमान रह॥५३॥

    भावार्थ

    विद्वानों को चाहिये कि सब पुरुषों को और सब स्त्रियों को वेद पढ़ा और जगत् के वायु आदि पदार्थों की विद्या में निपुण करके उन को उन पदार्थों से प्रयोजन साधने में प्रवृत्त करें॥५३॥

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    विषय

    नाना पदों पर योग्य नेता की स्थापना ।

    भावार्थ

    [१] हे राजन् ! (त्वा) तुझको मैं (अपाम्ंएमन्) जलों, प्राणों या प्रजाओं के गन्तव्य, या प्राप्त करने योग्य जीवन रूप वायु पद पर ( सादयामि) स्थापित करता हूँ । अर्थात् मेघ के जलों को इधर उधर लेजाने वाला वायु जिस प्रकार यथेष्ट दिशा में मेघों को ले जाता है और जिस प्रकार समस्त प्राणों का आश्रय वायु है उसी प्रकार राजा को भी प्रजाओं के संचालन और उनके जीवन प्रदान, उनके निग्रहानुग्रह के अधिकार पर स्थापित करता हूँ । [ २ ] (स्वा अपां ओझन सादयामि ) तुझको जलों के दलदल भाग में जहां नाना ओषधियां उत्पन्न होती है उस पद पर स्थापित करता हूं। अर्थात् जलों के एकत्र हो जाने पर दल २ में जिस प्रकार वहां ओषधियां बहुत उत्पन्न होती हैं उसी प्रकार तू भी प्रजाओं का एकत्र हो जाने का केन्द्र है। तुझको मुख्य पद पर स्थापित कर नाना वीर्य धारक प्रजाओं और शासक पुरुषों के उत्पन्न कर लेने का अधिकार प्रदान करता हूं ॥ शत० ७।५।२।४६–६२ ॥ [ ३ ] ( त्वां अपाम् भस्मन् सादयामि) जलों के तेजो रूप भाग मेघ के पद पर तुझको स्थापित करता हूं । अर्थात् जलों का सूर्य किरणों से बना मेघ जिस प्रकार सब पर छाया और निष्पक्षपात होकर जल वर्पण करता है उसी प्रकार प्रजाओं पर तू समस्त सुख कर ऐश्वयों का वर्पण और छत्रछाया कर। इसी निमित्त तु स्थापित करता हूं । [ ४ ] ( अपां ज्योतिषि त्वा सादयामि) तुझे जलों की ज्योति अर्थात् विद्युत् के पदपर स्थापित करता हूँ । अर्थात् जिस प्रकार जलों में विद्युत् अति तीव्र, बलवती शक्ति है उसी प्रकार तू भी प्रजाओं के बीच अति तीव्र, बलवती शक्ति वाला होकर रह । उसी पद पर तुमको मैं नियुक्त करता हूँ | [५] (त्वा अपाम् अयने सादयामि ) तुझको जलों को एकमात्र आप इस भूमि के पदपर स्थापित करता हूं । अर्थात् जिस प्रकार समस्त जलों का आधार भूमि है उसी प्रकार समस्त प्रजाओं का आश्रय होकर तू रह। ६] ( अर्णवे त्वा सदने सादयामि ) तुझको 'अर्णव ' = जीवन प्राण के 'सदन', आसन पर स्थापित करता हूं । अर्थात् प्राण जिस प्रकार समस्त इन्द्रियों का आधार है, उसी प्रकार तू भी समस्त प्रजाओं का और शासक वर्गों का आश्रय और उनका सञ्चालक होकर रह । [ ७ ] समुद्रे त्वा सदने सादयामि ) तुझको मैं समुद्र अर्थात् मन के आसन पर स्थापित करता हूं । अर्थात् जिस प्रकार समस्त रत्न समुद से निकलते हैं वही उनका उद्गम स्थान है, और जिस प्रकार समस्त वाशियों का उद्गम स्थान मन है, उसी प्रकार समस्त प्रजाओं का उद्गम स्थान तू बन कर रह । [८] (त्वाम् अपां क्षये सादयामि ) जलों के निवासस्थान तड़ाग अथवा शरीर में जलों के नित्य आश्रय चक्षु के पद पर तुझको नियुक्त करता हूँ । अर्थात् सुख दुःख में जिस प्रकार ग्राम जनता तालाब या कूप के आश्रय पर रहती है और सुख दुःख में जिस प्रकार शरीर में आंख ही और दुःखाश्रु और आनन्दाश्रु बहाती है, अथवा वही सब पर निरक्षण करती है उसी प्रकार तू प्रजा के सुख दुःख में सुखी दुखी हो और उनपर रेख देख रख । [९] ( अपां त्वा सधिषि सादयामि ) समस्त जलों को समान रूप से धारण करने वाले गम्भीर जलाशय के पद पर और समस्त प्रजाओं के निष्पक्ष होकर वचन सुनने वाले 'श्रवण' के पद पर स्थापित करता अर्थात् समस्त प्रजाओं के निष्पक्ष होकर वचन सुन और निर्णय कर । [१०] ( सरिरे सदने वा सादयामि ) तुझे सर्वत्र प्रसरणशील और प्रेरक जल के पदपर स्थापित करता हूं और अध्यात्म में स्वयं सरण करने वाली वाणी के पद पर नियुक्त करता हूं । वहां तू अपनी आज्ञा से सबको संचालित कर । [११] (अपां त्वा सहने सादयामि ) सूक्ष्म जलों का आश्रयस्थान द्यौलोक या समस्त लोकों के आश्रयभूत महान् आकाश के पत्र पर तुझे स्थापित करता हूँ । अर्थात् उसके समान तू सब प्रजाओं को अपने में आश्रय देने वाला हो । [१२] ( अपां त्वा सधस्थे सादयामि ) जल को एकत्र धारण करने वाले अन्तरिक्ष के पद पर तुमको स्थापित करता हूं अर्थात् अन्तरिक्ष जिल प्रकार मेघ आदि रूप से जलों को और सूर्यारश्मियों को भी एकत्र रखता हैं उसी प्रकार राजपुरुषों और प्रजा जन दोनों को तू समान रूप से धारण कर । [१३] ( अपां त्वा योनौ सादयामि ) समस्त नद नदियों के चारों तरफ से आकर मिलने के एक मात्र स्थान समुद्र के पद पर तुमको मैं स्थापित करता हूं । अर्थात् तू समस्त देश देशान्तरों से आई प्रजाओं को शरण देने वाला हो । [१४] ( अपां त्वा पुरीषे सादयामि ) तुमको मैं जलों के भीतर दीप्ति सहित विद्यमान रेती के पदपर स्थापित करता हूं। जैसे रेती जलों को स्वच्छ रखती और उसकी शोभा को बढ़ाती है। उसी प्रकार तू प्रजाओं को स्वच्छ रख और उसकी शोभा को बढ़ा। [१५] (पां त्वा पाथसि सादयामि) जलों के भीतर विद्यमान, पालन- कारी तत्व अन्न के पद पर तुझको मैं स्थापित करता हूं । अर्थात् जिस प्रकार जलों से उत्पन्न अन्न सबको प्राणप्रद जीवनप्रद और पालक है उसी प्रकार तू भी सबका जीवनप्रद, पालक हो । [१६] (त्वा गायत्रेण छन्दसा सादयामि ) तुझको गायत्र छन्द से स्थापित करता हूँ । अर्थात् ब्राह्मणों विद्वानों के विद्या बल से तुझको स्थापित करता हूँ | [१७] (त्रैष्टुभेन त्वा छन्दसा सादयामि ) तुझको मैं वैष्टुभ छन्द से स्थापित करता हूँ । अर्थात् तुझको क्षात्र-बल से स्थिर करता हूं । [१८] ( जागतेन वा छन्दसा स्थापयामि) तुझको मैं जागत छन्द अर्थात् वैश्यों के बल से स्थापित करता हूँ । [१९] ( अनुष्टुभेन त्वा छन्दसा सादयामि ) आनुष्टुभेन छन्द से अर्थात् सर्व साधारण लोक के बल से तुमको स्थापित करता हूं । [२०] ( पात्ंकेन वा छन्दसा सादयामि ) तुझको मैं पात्कं छन्द से अर्थात, दश दिशाओं अथवा पांचों जनों के बल से तुके स्थापित करता हूं ।

    टिप्पणी

    १ अपा । २ सरिरे । ३ गायत्रेण ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    उशना ऋषि: । आपो देवता: । ( १ ) ब्राह्मी पंक्तिः । पञ्चमः । ( २ ) ब्राह्मी जगती । निषादः । ( ३ ) निचृद् ब्राह्मी पंक्ति: । पञ्चमः ॥

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    विषय

    ज्ञान-विज्ञान

    पदार्थ

    १. प्रभु [सबका भला चाहनेवाले] उशना से कहते हैं कि (त्वा) = तुझे (अपाम् एमन्) = वायु में [वायुर्वा अपामेम-श० ७।५।२।४६ ] (सादयामि) = स्थापित करता हूँ, अर्थात् तुझे वायु के ज्ञान में परिनिष्ठित करता हूँ। 'वायु' का मानव जीवन से सर्वाधिक सम्बन्ध है। इसके बिना एक पल भी जीवन का चलना सम्भव नहीं रहता, अतः वायुविद्या को सम्यग् जानकर शुद्ध वायु के सेवन से हमें अपने जीवन को 'सत्य, शिव व सुन्दर' बनाना है। २. (त्वा) = तुझे (अपाम् ओद्मन्) = [ओषधयो वा अपामोद्म-श० ७।५।२।४७ ] ओषधियों में (सादयामि) = स्थापित करता हूँ। ओषधि - विज्ञान में परिनिष्ठित करता हूँ। इनका विज्ञान तुझे इनके रसों के समुचित प्रयोग में समर्थ करेगा। इनके समुचित प्रयोग से तू मलों का दहन करता हुआ पूर्ण स्वस्थ बनेगा। ३. (त्वा) = तुझे (अपां भस्मन्) [अभ्रं वा अपां भस्म - श० ७।५।२।४८ ] इन मेघों में (सादयामि) = स्थापित करता हूँ। इन मेघों की विद्या को समझने पर जहाँ इनमें तुझे प्रभु की महिमा दिखेगी, वहाँ तू इन मेघ - जलों को ही 'अमरवारुणी' - देवताओं की मद्य जानकर उसका प्रयोग करता हुआ हर्षयुक्त जीवनवाला होगा । ४. (त्वा) = तुझे (अपां ज्योतिषि) = [विद्युद्वा अपां ज्योतिः - श० ७।५।२।४९] विद्युत् में सादयामि स्थापित करता हूँ। विद्युत् के ज्ञान का अधिपति बनकर तू विद्युत् द्वारा अपने यन्त्रों को चलाता हुआ ऐश्वर्य की वृद्धि करनेवाला बनेगा । ५. (त्वा) = तुझे (अपाम् अयने) = [इयं वा अपाम् अयनम् - श० ७/५/२/५०] इस पृथिवी के ज्ञान में (सादयामि) = स्थापित करता हूँ। इस पृथिवी के ज्ञान से तू इसके द्वारा सब वस्तुओं को, निवास के लिए आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त करेगा। यह पृथिवी तो 'वसुन्धरा' है । ६. (त्वा) = तुझे (अर्णवे सदने) = [प्राणो वा अर्णवः- श० ७१५/२/५१ ] इस प्राणरूप घर में (सादयामि) = बिठाता हूँ। प्राणविद्या में परिनिष्ठत होकर तू इन प्राणों को प्रबल बनानेवाला होगा। ये प्रबल प्राण तुझपर होनेवाले रोगों के आक्रमणों से तुझे बचानेवाले होंगे। ७. (त्वा) = तुझे (समुद्रे सदने) = [ मनो वै समुद्रः- श० ७।५।२१५२] मनरूप सदन में (सादयामि) = बिठाता हूँ। इस मन की विद्या को अच्छी प्रकार समझकर जहाँ मनोनिरोध से तू अपनी ऊँचे-से-ऊँची स्थिति को प्राप्त करनेवाला होगा, वहाँ तू व्यावहारिक दोषों से भी बचा रहेगा। तू औरों की मनोवृत्ति को ठीक समझने के कारण ठीक ही बर्ताव करने में समर्थ होगा। ८. (त्वा) = तुझे (सरिरे सदने) = [वाग् वै सरिरम् - श० ७/५/२/५३] वाणीरूप सदन में सादयामि स्थापित करता हूँ। इस वाणी का पूर्ण प्रभु बनकर जहाँ तू शत्रुओं के लिए घोर स्थिति का सर्जन करनेवाला होता है [ययैव ससृजे घोरम्], वहाँ अपनों के लिए शान्त वायुमण्डल को प्रस्तुत करता है [ तयैव शान्तिरस्तु नः ] ९. (त्वा) = तुझे (अपां क्षये) = [चक्षुर्वा अपक्षय:- श० ७/५/२/५४] में (सादयामि) = स्थापित करता हूँ। इस चक्षु के रहस्य को तूने समझना है। इसके महत्त्व को जानकर तू निश्चय से बहु-द्रष्टा बनने का प्रयत्न करेगा। सब ज्ञानों के मूल में यह दर्शन [observastion] ही होता है। १०. (त्वा) = तुझे (अपां सधिषि) = [ श्रोत्रं वा अपांसधि :- श० ७/५/२/५५] श्रोत्र में (सादयामि) = स्थापित करता हूँ। श्रोत्र के महत्त्व को जानकर तू 'बहुश्रुत ' बनेगा। 'सुनना अधिक बोलना कम' इस रहस्य को हृदयङ्गम करके तू संसार में यशस्वी भी होगा। ११. (त्वा) = तुझे (अपां सदने) = [ द्यौर्वा अपां सदनम्-श० ७/५/२/५६] द्युलोक में- शरीरस्थ मस्तिष्क में (सादयामि) = स्थापित करता हूँ। मस्तिष्क के तत्त्व को समझकर तू इस मस्तिष्क के द्वारा अपने को ऊपर ले जानेवाला बनेगा। १२. (त्वा) = तुझे (अपां सधस्थे) = [ अन्तरिक्षं वा अपां सधस्थम्-श० ७।५।२।५७] अन्तरिक्ष में- शरीरस्थ इस हृदयान्तरिक्ष में - (सादयामि) = स्थापित करता हूँ। तू सदा मध्यमार्ग में चलता हुआ इस हृदयान्तरिक्ष को पवित्र करता है और वहाँ प्रभु का दर्शन करने के लिए प्रयत्नशील होता है। १३. (त्वा) = तुझे (अपां योनौ) = [समुद्रो वा अपां योनिः - श० ७।५।२।५८ ] समुद्र में (सादयामि) = स्थापित करता हूँ। समुद्र - विद्या में निपुण बनकर जहाँ तू विविध जलचरों का ज्ञान प्राप्त करता है, वहाँ इस रत्नाकर से विविध रत्नों का पानेवाला बनता है। १४. (त्वा) = तूझे (अपां पुरीषे) = [सिकता वा अपां पुरीषम्-श० ७/५/२/५९] इन रेत के कणों में सादयामि स्थापित करता हूँ। इस रेत-विद्या को जानकर हम इससे विविध लाभों को प्राप्त करनेवाले होते हैं। यह रेत जलों का मलरूप है- पत्थरों पर पानी पड़-पड़कर इसका निर्माण होता है। ये जहाँ मकान आदि के निर्माण में उपयुक्त होती है, वहाँ इसमें निहित स्वर्णकणों को भी हम प्राप्त करनेवाले बनते हैं। १५. (त्वा) = तुझे (अपां पाथसि) = [अन्नं वा अपां पाथः- श० ७।५।२।६०] अन्न में (सादयामि) = स्थापित करता हूँ। अन्न- विद्या को समझकर तू उपयुक्त अन्न का सेवन करता हुआ स्वस्थ बनता है। तू सात्त्विक अन्न के सेवन से अन्तःकरण को सात्त्विक बनाता है। १६. (त्वा) = तुझे (गायत्रेण छन्दसा) = प्राण-रक्षा की इच्छा के साथ मैं (सादयामि) = इस शरीर में स्थापित करता हूँ। इस शरीर में रहने के लिए 'गायत्रछन्द'- प्राणशक्ति के रक्षण की प्रबल कामना के महत्त्व को मैं तुझे समझाता हूँ। १७. मैं (त्वा) = तुझे (त्रैष्टुभेन छन्दसा) = 'काम, क्रोध व लोभ' इन तीनों को रोकने की इच्छा के साथ (सादयामि) = बिठाता हूँ। जीवन के लिए 'काम, क्रोध व लोभ' को रोकने के महत्त्व को मैं तुझे हृदयङ्गम करा देता हूँ। १८. (त्वा) = तुझे (जागतेन छन्दसा) = लोकहित की प्रबल कामना के साथ (सादयामि) = इस शरीर में बिठाता हूँ। यह तुझे अच्छी प्रकार स्पष्ट कर देता हूँ कि जीवन का अन्तिम उद्देश्य लोकहित की साधना ही है। १९. मैं (त्वा) = तुझे (आनुष्टुभेन छन्दसा) = प्रतिक्षण प्रभु-स्तवन की इच्छा के साथ (सादयामि) = इस शरीर में बिठाता हूँ। तुझे यह समझा देता हूँ कि 'प्रभु को भूले और गलती हुई', अतः इस जीवन में प्रभु का स्मरण करते हुए ही चलना है। २०. अन्त में (त्वा) = तुझे (पाङ्क्तेन छन्दसा) = पाँच को ठीक रखने की प्रबल कामना के साथ (सादयामि) = इस शरीर में स्थापित करता हूँ। तूने इस शरीर में अपने निवास को उत्तम बनाने के लिए पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को ठीक रखना है-पाँचों कर्मेन्द्रियों को उत्तम कर्मों में लगाये रखना है। पाँचों प्राणों की शक्ति को ठीक रखना है। पाँचभौतिक शरीर में पाँचों पृथिवी, जल, तेज, वायु व आकाश की स्थिति को ठीक रखना है। 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र व निषाद' इन पाँच भागों में बटे हुए समाज की स्थिति को भी उत्तम बनाने का विचार करना है। मन की पञ्चतयी क्लिष्टाक्लिष्ट वृत्तियों को समझकर उन्हें अच्छा बनाना है। 'क्लेश, कर्म, विपाक, आशय व जन्म-मरण चक्र' से ऊपर उठने के लिए प्रयत्नशील होना है। पञ्चधा विभक्त कर्मों में सदा अपने को व्यापृत रखना है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम मन्त्र में वर्णित २० भागों में विभक्त ज्ञान को प्राप्त करनेवाले बनें। व्यर्थ की बातों में दिमाग को ख़राब करके 'मोघज्ञान' न बन जाएँ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    विद्वानांनी सर्व स्त्री-पुरुषांना वेद शिकवून या जगातील वायू इत्यादी पदार्थांच्या विद्येत निपुण करावे. त्या पदार्थाद्वारे प्रयोजन सिद्ध करण्यास प्रवृत्त करावे.

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    विषय

    आतां अध्यापकांनी अध्ययन करणाऱ्या विद्यार्थ्यांना काय उपदेश करावा, पुढील मंत्रात याविषयी सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (एक अध्यापक अनेक विद्यार्थ्यांना अथवा ज्ञानार्थी गृहस्थांना एक एका कर्तव्य कर्म सोपवीत आहे) हे मनुष्या, मी अध्यापन करणारा शिक्षक (अपाम्‌) प्राणरक्षेसाठी (दीर्घजीवनासाठी) (एमन्‌) गमनशील वायूमधे (शुद्धवातावरणात राहण्यासाठी) (त्वा) तुला (सादयामि) नियुक्त करतो (अपाम्‌) जलात उत्पन्न होणाऱ्या (ओपन्‌) आर्द्र औषधीकरिता (त्वा) तुला नियुक्त करतो (व आर्द्रवा ताजा औषधी एकत्रित कर) (अपाम्‌) गोळ्या केलेल्या लाकडांच्या (भस्मम्‌) राखेसाठी (त्वा) तुला (सादयामि) नियुक्त करतो (तू लाकडांची उपयोगी राख गोळा करीत जा) (अपाम्‌) सर्वत्र व्याप्त विद्युत आदी अग्नीच्या (ज्योतिर्वष) प्रकाशासां (त्वा) तुला (सादयामि) नियुक्त करतो. (अग्नीच्या अनेक रुपांचा उपयोग वा शोध घेण्यासाठी तुला नेमतो) (अपाम्‌) अवकाश अथवा मुक्त (अयने) स्थानात (त्वा) तुला (सादयामि) बसवितो (शांत निवांत स्थानात ध्यानासाठी तुला पाठवितो) (सदने) निवास करण्यास योग्य अशा (अर्णवे प्राणविद्येसाठी (त्वा) तुला (सादयामि नियुक्त करतो (तू प्राणायामादी विद्या शिक) (सदने) गमनशील चंचल (समुद्रे) मनाच्या विषयी (त्वा) तुला (सादयामि) नियुक्त करतो (तू मन:संयमाच्या अभ्यास कर) (सदने) प्राप्त करण्यास योग्य अशा (सरिरे) वाणीच्याविषयीं (त्वा) तुला (सादयामि) संयुक्त करतो (तू वाणीने शुद्ध उचारण, व्याकरण आदी शिक) (अपाम्‌) प्राप्तव्य वा आवश्‍यक पदार्थांच्या व्यवस्थेसाठी (क्षये) घरात (त्वा) तुला (सादयामि) नियुक्त करतो (तू आचार्यांच्या घरात आवश्‍यक त्या पदार्थांची व्यवस्था करीत जा) (अपाम्‌) अनेक प्रकारचा ध्वनि, शब्द आदीसाठी (सधिषि) शब्द वा ध्वनि ग्रहण करण्याचे जे साधन-कान, त्या कानासाठी (श्रवणशक्ती वाढविण्यासाठी अथवा त्याविषयी अधिक शोध करण्यासाठी) (त्वा) तुला (सादयामि) नियुक्त करीत आहे. (अपाम्‌) जलाच्या (सदने) अंतरिक्ष रुप स्थानामधे (त्वा) तुला (सादयामि) नियुक्त करीत आहे (तू आकाशातून वृष्टी कशी होते वा होईल, याविषयी शोध व प्रयोग कर) (अपाम्‌) पाण्याच्या (सधस्थे) संचव वा संग्रह-स्थानासाठी (विहीर, हौद आदीसाठी) (त्वा) तुला (सादयाभि) नेमत आहे. (अपाम्‌) पाण्याच्या (योनौ) सागरामधे (समुद्रातील उपयोगिता शोधण्यासाठी) (त्वा) तुला (सादयामि) नियुक्त करीत आहे (अपाम्‌) पाण्याच्या (नदीतट वा भूमीतील) (पुरीष) वाळूसाठी (त्यातील गुणवत्ता शोधण्यासाठी) (त्वा) तुला (सादयामि) नियुक्त करीत आहे. (अपाम्‌) पाण्याच्या (पाथसि) अन्न-धान्य उत्पादनासाठी व उपयोग करण्यासाठी (त्वा) तुला (सादयामि) नियुक्त करीत आहे. (गायत्रेण) गायत्री छंदातील मंत्रांचा (छन्दसा) स्वतंत्र अर्थ शोधण्यासाठी (त्वा) तुला (सादयामि) नियुक्त करीत आहे. (त्रैष्टुभेन) त्रिष्टुम्‌ छंदातील मंत्राचा (छन्दसा) शुद्ध अर्थ शोधण्यासाठी (त्वा) तुला (सादयामि) नियुक्त करीत आहे. (आनुष्टुभेन) अनुष्टुप्‌ छंदातील मंत्रांचा (छन्दसा) शुद्ध अर्थ प्रकट करण्यासाठी (त्वा) तुला (सादयाभि) प्रेरणा करीत आहे. (पाड्क्तेन) पंक्ति छंदातील मंत्रांतून व्यक्त होणाऱ्या (छन्दसा) स्वच्छ अर्थ व्यक्त करण्यासाठी (त्वा) तुला (सादयामि) प्रेरित करीत आहे. हे शिष्या, तू (दिलेल्या आपल्या त्या त्या कर्मामधे) सतत मग्न राहा ॥53॥

    भावार्थ

    भावार्थ - विद्वानांचे कर्तव्य आहे की त्यांनी सर्व पुरुषांना व सर्व स्त्रियांना वेद शिकवावेत. तसेच संसारात वायू, (अग्नी, जल) आदी पदार्थांच्या विद्या-ज्ञानामधे लोकांना निष्णात करावे आणि त्यांना त्या भौतिक शक्तीद्वारे आपले प्रयोजन पूर्ण करण्याच्या कामी प्रवृत्त करावे. ॥53॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O man, I give thee the knowledge of the moving air for the medicinal herbs filled with the wetness of water, clouds, brilliant electricity, open space, control of breath, fleeting mind, acquirable speech, a well-furnished house, ear that hears various sounds, the sky and mid region full of water, ocean full of water, sandy tracts of water, foodstuffs that grow through water. I preach unto thee the significance of vedic texts couched in Gayatri, Trishtup, Jagati, Anushtup, and Pankti metres.

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    Meaning

    For the protection of life and the production and management of energy, I place/initiate you: in the waterways management, and study of the source of water, the spatial wind; in the movement of water into the herbs; in the concentration of energy in ash; in the flash of light in lightning; in the currents of energy in the sky, and the orbits of the stars and planets; in the source and centre of pranic energy, and in the secret motions of the mind, and the depths of the sea; concentrations of air in space; in the power and source of speech, and storms of heaving oceans in space; in the faculty of vision and the science of light; in the faculty of hearing and the transmission of sound; in the science of radiation and the solar region, the source of energy; in the sources of energy in the middle regions; in the original sources of energy, the universal ocean of motion of the Rajas mode of Nature (Prakriti); in the sands of earth and rivers and the waste materials; in water, air and food, the sources of vital energy. I initiate you with the visions of nature and spirit contained in the gayatri verses, I initiate you with the pure knowledge contained in the trishtup verses, I initiate you with the knowledge contained in the inspiring jagati verses, I initiate you with the knowledge contained in the enlightening anushtup verses, I initiate you with the knowledge contained in the clear exhilarating pankti verses of the Veda.

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    Translation

    I place you in the passage of the waters (i. e. the wind). (1) I place you in the swelling of the waters (i. e. the plants) . (2) I place you in the the ashes of the waters (i. e. the clouds). (3) I place you in the light of waters (i. e. the lightning). (4) I place you in the course of waters (i. e. the earth). (5) I place you in the flood, the resting place (of waters) (i. e. the in-breath). (6) I place you in the ocean, the resting place (of waters) (i. e. the mind). (7) I place you in the stream, the resting place (of waters) (i. e. speech). (8) I place you in the habitation of waters (i. e. vision). (9) I place you in the resting place of waters (i. e. audition). (10) І place you in the station of waters (i. e. the sky). (11) I place you in the meeting place of waters (i. e. the mid-space). (12) I place you in the birth place of waters (i. e. the sea). (13) I place you in the excreta of waters (i. e. the sands). (14) I place you in the residence of waters (i. e. the food). (15) I place you there with the gayatri metre. (16) I place you there with the tristubh metre. (17) I place you there with the jagati metre. (18) I place you there with the anustup metre. (19) I place you there with the pankti metre. (20)

    Notes

    In ritual, the sacrificer lays twenty apasyá bricks, five in each quarter. Eman, एमनि, in the passage of. वयुर्वा अपां एमन्, the wind is the passage of the waters. Odman, ओद्मनि, in the swelling of. ओषधयो वा अपां ओद्म, plants are the swelling of the waters. Bhasman, aay, in the ashes of. अभ्रं वा अपां भस्म, cloud is the ash of the waters. Jyotisi, in the light of. विद्युद वा अपां ज्योति:, lightning is the light of the waters. Ayane, in the path way. इयं पृथ्वी अपामयनं, the Earth is the path way of the waters. Arnave sadane, in the flood, the resting place of, प्राणो वै अर्णव: the in-breath, or the vital breath. Samudre sadane,मनो वै समुद्र: the mind. in the ocean, the resting place of. Aart . Sarire sadane, in the stream, the resting place of. वाग्वै सरिरं, the speech. Ksaye, in the habitation of. क्षयो निवास: चक्षुर्वा अपां क्षय: . the vision is the habitation of the waters. Sadhisi, in the resting place of. श्रोत्रं वा अपां सधि:. the audition. Sadane, in the station of. द्योर्वा अपां सदनं, in the sky. Sadhasthe, in the meetin g place of. अंतरिक्षं वा अपां सधस्थं, in the mid-space, Apam yonau, in the birth place (womb) of the waters. समुद्रो वा अपां योनि:, in the sea. Purise, in the excreta of. सिकता वा अपां पुरीषं, the sands are the excreta of the waters. Pathasi, in the residence of. अन्नं वा अपां पाथ: in the food.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথাধ্যেতৃজনাধ্যাপকাঃ কিমুপদিশেয়ুরিত্যাহ ॥
    এখন অধ্যয়নকারীকে অধ্যাপক কী উপদেশ করিবে, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্য যেসব শিক্ষার্থী আমি (অপাং) প্রাণের রক্ষার নিমিত্ত (এমন) গমনশীল বায়ুতে (ত্বা) তোমাকে (সাদয়ামি) স্থাপিত করিতেছি । (অপাম্) জলের (ওদ্মন্) আর্দ্রতাযুক্ত ওষধিসকলের মধ্যে (ত্বা) তোমাকে (সাদয়ামি) স্থাপন করিতেছি (অপাম্) প্রাপ্ত হওয়া কাষ্ঠের (ভস্মন্) ভস্মে (ত্বা) তোমাকে (সাদয়ামি) সংযুক্ত করিতেছি (অপাম্) ব্যাপ্ত হওয়া বিদ্যুতাদি অগ্নির (জ্যোতিষি) প্রকাশে (ত্বা) তোমাকে (সাদয়ামি) নিযুক্ত করিতেছি (অপাম্) অবকাশযুক্ত (অয়নে) স্থানে (ত্বা) তোমাকে (সাদয়ামি) সংযুক্ত করিতেছি । (সদনে) স্থিতির যোগ্য (অর্ণবে) প্রাণবিদ্যায় (ত্বা) তোমাকে (সাদয়ামি) সংযুক্ত করিতেছি । (সদনে) গমনশীল (সমুদ্রে) মনের বিষয়ে (ত্বা) তোমাকে (সাদয়ামি) সম্বন্ধ করিতেছি (সদনে) প্রাপ্ত হওয়ার যোগ্য (সরিরে) বাণীর বিষয়ে (ত্বা) তোমাকে (সাদয়ামি) সংযুক্ত করিতেছি (অপাম্) প্রাপ্ত হওয়ার যোগ্য পদার্থ সম্বন্ধী (ক্ষয়ে) গৃহে (ত্বা) তোমাকে (সাদয়ামি) স্থাপন করিতেছি (অপাম্) অনেক প্রকারে ব্যাপ্ত শব্দ সম্বন্ধী (সধিষি) সেই পদার্থে যদ্দ্বারা অনেক শব্দকে সমান এই জীব শ্রবণ করে অর্থাৎ কর্ণের বিষয়ে (ত্বা) তোমাকে (সাদয়ামি) স্থিত করিতেছি (অপাম্) জলের (সদনে) অন্তরিক্ষরূপ স্থানে (ত্বা) তোমাকে (সাদয়ামি) স্থাপিত করিতেছি (অপাম্) জলের (সধস্থে) তুল্যস্থানে (ত্বা) তোমাকে (সাদয়ামি) স্থাপন করিতেছি । (অপাম্) জলের (য়োনৌ) সমুদ্রে (ত্বা) তোমাকে (সাদয়ামি) নিযুক্ত করিতেছি (অপাম্) জলের (পুরীষে) বালুতে (ত্বা) তোমাকে (সাদয়ামি) নিযুক্ত করিতেছি । (অপাম্) জলের (পাথসি) অন্নে (ত্বা) তোমাকে (সাদয়ামি) প্রেরণা করিতেছি (গায়ত্রেণ) গায়ত্রী ছন্দ হইতে নির্গত (ছন্দসা) স্বতন্ত্র অর্থ সহ (ত্বা) তোমাকে (সাদয়ামি) নিযুক্ত করিতেছি । (ত্রৈষ্টুভেন) ত্রিষ্টুপ্ মন্ত্র দ্বারা বিহিত (ছন্দসা) শুদ্ধ অর্থ সহ (ত্বা) তোমাকে (সাদয়ামি) নিযুক্ত করিতেছি । (জাগতেন) জগতী ছন্দে কথিত (ছন্দসা) আনন্দদায়ক অর্থ সহ (ত্বা) তোমাকে (সাদয়ামি) নিযুক্ত করিতেছি । (আনষ্টুভেন) অনুষ্টুপ্ মন্ত্রে কথিত (ছন্দসা) শুদ্ধ অর্থ সহ (ত্বা) তোমাকে (সাদয়ামি) প্রেরণা করিতেছি এবং (পাঙ্ক্তেন) পঙ্ক্তি মন্ত্রে প্রকাশিত (ছন্দসা) নির্মল অর্থ সহ (ত্বা) তোমাকে (সাদয়ামি) প্রেরিত করিতেছি সেইরূপ তুমি বর্ত্তমানে থাক ॥ ৫৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- বিদ্বান্দিগের উচিত যে, সকল পুরুষ ও সকল স্ত্রীগণকে বেদ পাঠ করাইয়া এবং জগতের বায়ু আদি পদার্থের বিদ্যায় নিপুণ করিয়া তাহাদিগকে সেই সব পদার্থ দ্বারা প্রয়োজন সাধনে প্রবৃত্ত করিবে ॥ ৫৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒পাং ত্বেম॑ন্ৎসাদয়াম্য॒পাং ত্বোদ্ম॑ন্সাদয়াম্য॒পাং ত্বা॒ ভস্ম॑ন্ সাদয়াম্য॒পাং ত্বা॒ জ্যোতি॑ষি সাদয়াম্য॒পাং ত্বায়॑নে সাদয়াম্যর্ণ॒বে ত্বা॒ সদ॑নে সাদয়ামি সমু॒দ্রে ত্বা॒ সদ॑নে সাদয়ামি । সরি॒রে ত্বা॒ সদ॑নে সাদয়াম্য॒পাং ত্বা॒ ক্ষয়ে॑ সাদয়াম্য॒পাং ত্বা॒ সধি॑ষি সাদয়াম্য॒পাং ত্বা॒ সদ॑নে সাদয়াম্য॒পাং ত্বা॑ স॒ধস্থে॑ সাদয়াম্য॒পাং ত্বা॒ য়োনৌ॑ সাদয়াম্য॒পাং ত্বা॒ পুরী॑ষে সাদয়াম্য॒পাং ত্বা॒ পাথ॑সি সাদয়ামি । গায়॒ত্রেণ॑ ত্বা॒ ছন্দ॑সা সাদয়ামি॒ ত্রৈষ্টু॑ভেন ত্বা॒ ছন্দ॑সা সাদয়ামি॒ জাগ॑তেন ত্বা॒ ছন্দ॑সা সাদয়া॒ম্যানু॑ষ্টুভেন ত্বা॒ ছন্দ॑সা সাদয়ামি॒ পাঙ্ক্তে॑ন ত্বা॒ ছন্দ॑সা সাদয়ামি ॥ ৫৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অপাং ত্বেমন্নিত্যস্যোশনা ঋষিঃ । আপো দেবতাঃ । পূর্বস্য ভুরিগ্ ব্রাহ্মী পংক্তিশ্ছন্দঃ । পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥ সরিরে ত্বেতি মধ্যস্য ব্রাহ্মী জগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥ গায়ত্রেণেত্যুত্তরস্য নিচৃদ্ব্রাহ্মী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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