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यजुर्वेद अध्याय - 13

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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 7
    ऋषिः - हिरण्यगर्भ ऋषिः देवता - ईश्वरो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    126

    याऽइष॑वो यातु॒धाना॑नां॒ ये वा॒ वन॒स्पतीँ॒१ऽरनु॑। ये वा॑व॒टेषु॒ शेर॑ते॒ तेभ्यः॑ स॒र्पेभ्यो॒ नमः॑॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याः। इष॑वः। या॒तु॒धाना॑ना॒मिति॑ यातु॒ऽधाना॑नाम्। ये। वा॒। वन॒स्पती॑न्। अनु॑। ये। वा॒। अ॒व॒टेषु॑। शेर॑ते। तेभ्यः॑। स॒र्पेभ्यः॑। नमः॑ ॥७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    याऽइषवो यातुधानानाँये वा वनस्पतीँरनु । ये वावटेषु शेरते तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    याः। इषवः। यातुधानानामिति यातुऽधानानाम्। ये। वा। वनस्पतीन्। अनु। ये। वा। अवटेषु। शेरते। तेभ्यः। सर्पेभ्यः। नमः॥७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 7
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तैः कथं भवितव्यमित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यूयं या यातुधानानामिषवो ये वा वनस्पतीननुवर्त्तन्ते, ये वाऽवटेषु शेरते, तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः प्रक्षिपत॥७॥

    पदार्थः

    (याः) (इषवः) गतयः (यातुधानानाम्) ये यान्ति परपदार्थान् दधति तेषाम् (ये) (वा) (वनस्पतीन्) वटादीन् (अनु) (ये) (वा) (अवटेषु) अपरिभाषितेषु मार्गेषु (शेरते) (तेभ्यः) (सर्पेभ्यः) (नमः) वज्रम्। [अयं मन्त्रः शत॰७.४.१.२९ व्याख्यातः]॥७॥

    भावार्थः

    मनुष्या ये मार्गेषु वनेषूत्कोचका दिवसे एकान्ते स्वपन्ति, तान् दस्यून्नागांश्च शस्त्रौषधादिना निवारयन्तु॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को कैसा होना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! तुम लोग (याः) जो (यातुधानानाम्) पराये पदार्थों को प्राप्त हो के धारण करने वाले जनों की (इषवः) गति हैं (वा) अथवा (ये) जो (वनस्पतीन्) वट आदि वनस्पतियों के (अनु) आश्रित रहते हैं और (ये) जो (वा) अथवा (अवटेषु) गुप्तमार्गों में (शेरते) सोते हैं, (तेभ्यः) उन (सर्पेभ्यः) चञ्चल दुष्ट प्राणियों के लिये (नमः) वज्र चलाओ॥७॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि जो मार्गों और वनों में उचक्के दुष्ट प्राणी एकान्त में दिन के समय सोते हैं, उन डाकुओं और सर्पों को शस्त्र, ओषधि आदि से निवारण करें॥७॥

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    विषय

    सर्पण स्वभाव दुष्टों का दमन । पक्षान्तर में गुप्तचरों को नियोजन ।

    भावार्थ

    ( याः ) जो ( यातुधानानां ) प्रजा को पीड़ा देनेवाले दुष्ट पुरुषों के ( इषवः ) शस्त्र हैं अर्थात् उनके द्वारा चलाये हथियारों के समान प्रजा के नाशकारी हैं ये वा ) और जो ( वनस्पतीन् अनु ) वृक्षों के आश्रित सर्पों के समान प्रजा को आश्रय देनेवाले माण्डलिक भूपतियों के अधीन रहते हैं । ( ये अवटेषु ) जो गढ़ों में रहने वाले सापों के समान प्रजा की निचली श्रेणियों में ( शेरते ) गुप्त रूप से रहते हैं ( तेभ्यः सर्पेभ्यः ) उन सब कुटिल स्वभाव के लोकों का भी ( नमः ) दमन हो ॥ शत० ७ । ४ । १ । २९ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋष्यादि पूर्ववत् । अनुष्टुप् छन्दः । गांधारः ।।

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    विषय

    'असुर्य लोक'

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र के 'पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोक' में होनेवाले लोकों के अतिरिक्त कुछ वे लोक भी हैं जो ('असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः') = अन्ध-तमस् से आवृत हैं। इन लोकों में वे जाया करते हैं जो आत्मघाती हैं। (या:) = जो (यातुधानानाम्) = औरों में पीड़ा का आधान करनेवाले लोगों के (इषवः) = गति-स्थान हैं [इष्यते गम्यते येषु, इषवः गतयःद०] । २. (ये वा) = अथवा जो (वनस्पतीन् अनु) = वनस्पतियों के आश्रित हैं, अर्थात् घने जङ्गलों से जो लोक घिरे हैं। ३. (वा) = या (ये) = जो (अवटेषु) = गढों में (शेरते) = निवास करते हैं, अर्थात् सामान्य भाषा में जिन्हें पाताललोक व नागलोक कहते हैं (तेभ्यः सर्पेभ्यः) = उन सब लोकों के लिए (नमः) = हम नमस्कार करते हैं। ४. प्रभु ने राक्षसों-पिशाचों के हित के लिए इन 'असुर्य अन्धकारमय' लोकों का निर्माण किया है। मृत्यु के बाद ये इन अन्धतमस् लोकों में जाते हैं और वहाँ एक बार सब अशुभ संस्कारों को भूलकर फिर इस पृथिवी पर जन्म लेते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-यातुधानों- राक्षसों के गतिरूप वे अन्धकारमय लोक हैं जहाँ घने जङ्गल व गर्त-ही-गर्त हैं। इनमें अन्य व्यक्तियों से दूर रहते हुए वे पीड़ा देने की वृत्ति को भूल रहे होते हैं।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी मार्गात व वनात गुप्त व एकांतस्थळी झोपणाऱ्या (लपणाऱ्या) चोर व दुष्ट प्राण्यांना, तसेच डाकू व सर्पांना शस्त्रांनी किंवा औषधांनी मारावे.

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    विषय

    पुढील मंत्रात देखील मनुष्यांनी कसे असावे, याचविषयी प्रतिपादन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (यातुधानानाम्‌) दुसऱ्याच्या धनाचे अपहरण करणारे (चोर, लुटारू आदी) दुष्ट माणसांची (या:) जी (इषव:) दुष्ट प्रवृत्ती वा कर्में आहेत, (वा) तसेच (ये) जे (वनस्पतीत्‌) वटवृक्षादी दाट वनस्पतीत (घनदाट अरण्यात) (अनु) लपून राहतात (वा) अथवा (ये) जे (दरोडेखोर, लुटारू) (अवटेषु) वाटेतील गुप्तस्थानांत वा मार्गात (शेरते) राहतात, लपून बसलेले असतात, (तेभ्य:) त्या सर्वा (सर्पेभ्य:) दुष्ट प्राण्यांविरूद्ध तुम्ही (सन्मार्गी आणि वीरमाणसें) (नम:) वज्र (अति घातक अस्त्र-शस्त्र) चालवा. त्या दृष्टांना ठार मारावे ॥7॥^(यातुधानानाम्‌=ये यन्ति परपदार्थान्‌ दघति तेषाम्‌)

    भावार्थ

    भावार्थ- मनुष्यांनी मार्गात अथवा वनात जे लुटारू, दरोडेखोर दुष्ट लोक दिवसा लपून, दडून बसलेले असतात (आणि लोकांना लुटून, मारहाण करून, त्रास देतात) अशा लुटारूंना आणि सर्प आदी (विषारी हिंस्त्रक जीवांना) शस्त्राने वा औषधीप्रयोगाने जीवे मारावे ॥7॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Suppress through arms the movements of dacoits and plunderers who live in forests ; and lie hidden in unknown paths.

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    Meaning

    For all the arrows of the enemies of life, and those who damage the herbs and trees, being poachers and parasites, and those who sleep and wait in the obscure paths for victims, for all these surreptitious forms of moving life, a challenge and a thunderbolt!

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    Translation

    To those crawling creatures, that are the missiles of the pain-inflictors, or those that dwell on trees, or those that sleep on unfrequented paths, we pay our homage. (1)

    Notes

    Yātudhāna, यातुं यातनां दधति ये ते, those who inflict pain; torturers. In legend, raksasas, pisacas are called yatudhanas. Isavah, बाणा:, arrows, missiles. Avatesu, बिलेषु, in the holes. Or, अपरिभाषितेषु मार्गेषु, unfrequented paths (рауа. ).

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তৈঃ কথং ভবিতব্যমিত্যুপদিশ্যতে ॥
    পুনঃ মনুষ্যদিগকে কেমন হওয়া উচিত, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! তোমরা (য়াঃ) যাহা (য়াতুধানানম্) অপরের পদার্থ প্রাপ্ত হইয়া ধারণকারী লোকদের (ইষবঃ) গতি (বা) অথবা (য়ে) যাহা (বনস্পতীন্) বটাদি বনস্পতির (অনুঃ) আশ্রিত থাকে এবং (য়ে) যাহা (বা) অথবা (অবটৈষু) গুপ্তমার্গে (শেরতে) শয়ন করে (তেভ্যঃ) সেই সব (সর্পেভ্যঃ) চঞ্চল দুষ্ট প্রাণিদিগের জন্য (নমঃ) বজ্র চালাও ॥ ৭ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, যে মার্গে ও বনে অসৎ, দুষ্ট প্রাণী একান্তে দিনে শয়ন করে সেই সব ডাকাইত ও সর্পসমূহকে শস্ত্র, ওষধি ইত্যাদি দ্বারা নিবারণ করিবে ॥ ৭ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়াऽইষ॑বো য়াতু॒ধানা॑নাং॒ য়ে বা॒ বন॒স্পতীঁ॒১ऽরনু॑ ।
    য়ে বা॑ব॒টেষু॒ শের॑তে॒ তেভ্যঃ॑ স॒র্পেভ্যো॒ নমঃ॑ ॥ ৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়া ইষব ইত্যস্য হিরণ্যগর্ভ ঋষিঃ । স এব দেবতা চ । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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