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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 9
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    कृ॒णु॒ष्व पाजः॒ प्रसि॑तिं॒ न पृ॒थ्वीं या॒हि राजे॒वाम॑वाँ॒२ऽ इभो॑न। तृ॒ष्वीमनु॒ प्रसि॑तिं द्रूणा॒नोऽस्ता॑सि॒ विध्य॑ र॒क्षस॒स्तपि॑ष्ठैः॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कृ॒णु॒ष्व। पाजः॑। प्रसि॑ति॒मिति॒ प्रऽसि॑तिम्। न। पृ॒थ्वीम्। या॒हि। राजे॒वेति॒ राजा॑ऽ इव। अम॑वा॒नित्यम॑ऽवान्। इभे॑न। तृ॒ष्वीम्। अनु॑। प्रसि॑ति॒मिति॒ प्रऽसि॑तिम्। द्रू॒णा॒नः। अस्ता॑। अ॒सि॒। विध्य॑। र॒क्षसः॑। तपि॑ष्ठैः ॥९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कृणुष्व पाजः प्रसितिन्न पृथ्वीँयाहि राजेवामवाँऽइभेन । तृष्वीमनु प्रसितिन्द्रूणानो स्तासि विध्य रक्षसस्तपिष्ठैः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कृणुष्व। पाजः। प्रसितिमिति प्रऽसितिम्। न। पृथ्वीम्। याहि। राजेवेति राजाऽ इव। अमवानित्यमऽवान्। इभेन। तृष्वीम्। अनु। प्रसितिमिति प्रऽसितिम्। द्रूणानः। अस्ता। असि। विध्य। रक्षसः। तपिष्ठैः॥९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 9
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    पदार्थ -
    १. गत मन्त्र में हिरण्यगर्भ प्रकाशमय लोकों में पहुँचने की कामना करता है, जिन लोकों में 'ज्ञान है, शान्ति' है। ऐसा व्यक्ति ही वहाँ पहुँच सकता है जो प्रस्तुत मन्त्र के शब्दों में प्रभु की प्रेरणा को सुनकर 'वामदेव' बनता है सारे दिव्य गुणों को अपनानेवाला बनता है। २. प्रभु इससे कहते हैं कि (पाज:) = बल को कृणुष्व सम्पादित कर, शक्तिशाली बन । शक्ति ही तुझे वामदेव बनाएगी। ३. शक्ति के सम्पादन के लिए ही (पृथ्वीम्) = इस पृथिवी को, इन पार्थिव भोगों को (प्रसितिं न) = बन्धन की भाँति याहि प्राप्त हो। इन पार्थिव भोगों को तू बन्धन समझनेवाला हो । शरीर के लिए ये कुछ मात्रा में आवश्यक हो जाते हैं, परन्तु तूने इन्हें बन्धन समझते हुए इनमें फँसना नहीं। भूख को तू रोग समझकर उसके लिए भोजन को औषधवत् ही ग्रहण करना । ४. (राजा इव) = तू अपने इस जीवन में राजा की भाँति बन। तूने इन्द्रियों का गुलाम नहीं बनना। ५. अमवान् इन्द्रियों का गुलाम न बनने के कारण तू 'अम' वाला हो [ अम=strength, power; vital air ], बल व प्राणशक्ति सम्पन्न हो । ६. (इभेन) = [इभ - fearless power] अपनी निर्भीक शक्ति के द्वारा (तृष्वीम्) = शीघ्र ही (प्रसितिम्) = बन्धन को (अनुद्रूणान:) = तू क्रमशः विनष्ट करनेवाला हो। एक-एक करके तू सब शत्रुओं को नष्ट कर डाल। ७. तू सचमुच अस्ता असि शत्रुओं को सुदूर फेंकनेवाला है। ८. (तपिष्ठैः) = अत्यन्त सन्तापक अस्त्रों से व प्राणायामादि परम तपों से (रक्षसः) = इन शत्रुओं को व राक्षसी वृत्तियों को विध्य-बींध डाल - राक्षसी वृत्तियों को तू समाप्त कर डाल ।

    भावार्थ - भावार्थ- शक्तिशाली बन। सांसारिक भोगों को बन्धन समझ । जितेन्द्रिय बनकर बन्धनों को नष्ट कर डाल

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