यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 15
ऋषिः - त्रिशिरा ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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भुवो॑ य॒ज्ञस्य॒ रज॑सश्च ने॒ता यत्रा॑ नि॒युद्भिः॒ सच॑से शि॒वाभिः॑। दि॒वि मू॒र्द्धानं॑ दधिषे स्व॒र्षां जि॒ह्वाम॑ग्ने चकृषे हव्य॒वाह॑म्॥१५॥
स्वर सहित पद पाठभुवः॑। य॒ज्ञस्य॑। रज॑सः। च॒। ने॒ता। यत्र॑। नि॒युद्भि॒रिति॑ नि॒युत्ऽभिः॑। सच॑से। शि॒वाभिः॑। दि॒वि। मू॒र्द्धान॑म्। द॒धि॒षे॒। स्व॒र्षाम्। स्वः॒सामिति॑ स्वः॒ऽसाम्। जि॒ह्वाम्। अ॒ग्ने॒। च॒कृ॒षे॒। ह॒व्य॒वाह॒मिति॑ हव्य॒ऽवाह॑म् ॥१५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
भुवो यज्ञस्य रजसश्च नेता यत्रा नियुद्भिः सचसे शिवाभिः । दिवि मूर्धानन्दधिषे स्वर्षाञ्जिह्वामग्ने चक्रिषे हव्यवाहम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
भुवः। यज्ञस्य। रजसः। च। नेता। यत्र। नियुद्भिरिति नियुत्ऽभिः। सचसे। शिवाभिः। दिवि। मूर्द्धानम्। दधिषे। स्वर्षाम्। स्वःसामिति स्वःऽसाम्। जिह्वाम्। अग्ने। चकृषे। हव्यवाहमिति हव्यऽवाहम्॥१५॥
विषय - तीनों दृष्टिकोणों से शिखर पर
पदार्थ -
१. गत मन्त्र में शिखर पर पहुँचने का उल्लेख था। प्रस्तुत मन्त्र में उसी का विस्तार से उल्लेख करते हुए कहते हैं कि [क] यह स्वस्थ शरीर में उत्तम रचनात्मक कर्मों का करनेवाला होता है, [ख] मस्तिष्क को ज्ञान-प्रकाश में स्थापित करता है, [ग] वाणी से प्रभु के नाम का भजन करता है और इस प्रकार 'त्रिशिरा:' त्रिविध उन्नति करनेवाला होता है। २. प्रभु कहते हैं कि हे त्रिशिरः ! तू (भुवः) = इस पार्थिव शरीर से (यज्ञस्य) = लोकहित के लिए किये जानेवाले कर्मों का, और उन कर्मों के द्वारा (रजसः) = लोकरञ्जन का, लोकों के प्रसादन का (नेता) = प्राप्त करानेवाला होता है। संक्षेप में कहें तो यह कि तू शरीर को स्वस्थ बनाता है, उस स्वस्थ शरीर से तू यज्ञों को करता है और यज्ञों से लोकों के आनन्द को सिद्ध करनेवाला होता है। ३. यह वह मार्ग है (यत्र) = जिसमें तू (शिवाभिः) = कल्याणकर, मङ्गलमय (नियुद्भिः) = इन्द्रियरूप घोड़ों से (सचसे) = युक्त होता है, अर्थात् यज्ञों में प्रवृत्ति तेरी इन्द्रियों को बड़ा सुन्दर बनाये रखती है । ४. इस मार्ग पर चलता हुआ तू (मूर्धानम्) = अपने मस्तिष्क को (दिवि) = ज्ञान के प्रकाश में (दधिषे) = धारण करता है। तू अपने मस्तिष्क को ज्ञान-दीप्ति से अधिक-से-अधिक उज्ज्वल बनाता है। ५. हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! तू (स्वर्षाम्) = [स्व: समोति भजति] उस स्वयं देदीप्यमान ज्योति प्रभु को प्रभु के नाम को भजनेवाली (जिह्वाम्) = जिह्वा को (हव्यवाहम्) = हव्य पदार्थों का ही वहन करनेवाली (चकृषे) = बनाता है, अर्थात् यज्ञिय सात्त्विक पदार्थों का ही सेवन करता है। ६. एवं त्रिशिरा के जीवन में [क] उसका स्वस्थ शरीर तथा स्वस्थ शरीर रथ में जुती हुई कल्याणमयी इन्द्रियरूपी घोड़ियाँ सदा यज्ञ द्वारा, लोकहितकारी कार्यों के द्वारा, लोकरञ्जन में लगी रहती हैं। [ख] उसका मस्तिष्क सदा ज्ञान में अवस्थित होता है। [ग] उसकी जिह्वा पर प्रभु का नाम होता है और उसकी जिह्वा सात्त्विक भोजनों का ही स्वाद लेती है। एवं त्रिशिरा का नाम पूर्णतया अन्वर्थक ही होता है।
भावार्थ - भावार्थ- हमारे हाथ यज्ञात्मक कर्मों में लगे हों, मस्तिष्क ज्ञान में, तथा जिह्वा प्रभु नामोच्चारण में और सात्त्विक अन्न के सेवन में।
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