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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 6
    ऋषिः - हिरण्यगर्भ ऋषिः देवता - ईश्वरो देवता छन्दः - भुरिगुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    नमो॑ऽस्तु स॒र्पेभ्यो॒ ये के च॑ पृथि॒वीमनु॑। येऽ अ॒न्तरि॑क्षे॒ ये दि॒वि तेभ्यः॑ स॒र्पेभ्यो॒ नमः॑॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नमः॑। अ॒स्तु॒। स॒र्पेभ्यः॑। ये। के। च॒। पृ॒थि॒वीम्। अनु॑। ये। अ॒न्तरि॑क्षे। ये। दि॒वि। तेभ्यः॑। स॒र्पेभ्यः॑। नमः॑ ॥६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नमो स्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिवीमनु । येऽअन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नमः। अस्तु। सर्पेभ्यः। ये। के। च। पृथिवीम्। अनु। ये। अन्तरिक्षे। ये। दिवि। तेभ्यः। सर्पेभ्यः। नमः॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 6
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    पदार्थ -
    १. प्रस्तुत मन्त्र में सर्प शब्द का अर्थ 'सर्पतिर्गतिकर्मा' २।१४- नि०, 'इमे लोकाः वै सर्पा यद्धि किञ्च सर्पस्येष्वेव वै लोकेषु सर्पति' - श० ७।४ । १ । १७ इन वाक्यों के अनुसार ये सब लोक-लोकान्तर हिरण्यगर्भ से ही बनाये गये हैं। ये गतिमय हैं, अतः सर्प कहलाते हैं। सब प्राणी भी इन्हीं में रहकर गति कर रहे हैं। २. (ये के च) = जो कोई भी लोक (पृथिवीम् अनु) = पृथिवी के अनुगत हैं, इस पृथिवी के समान ही प्राणियों की उत्पत्ति-स्थिति का स्थान बने हुए हैं, ३. (ये अन्तरिक्षे) = जो लोक इस विशाल अन्तरिक्ष में विद्यमान हैं, ४. (ये दिवि) = जो लोक देदीप्यमान द्युलोक में अवस्थित हैं, ५. (तेभ्यः सर्पेभ्यः) = उन सब लोक-लोकान्तरों से हमें (नमः) = अन्न की प्राप्ति हो । (नमः सर्पेभ्यः अस्तु) = हम उन लोकों के प्रति नतमस्तक होते हैं। उन लोकों में विद्यमान प्रभु की महिमा को देखकर हमारा मस्तक झुक जाता है। ६. पृथिवी पर तो अन्न उत्पन्न होता ही है, अन्तरिक्षस्थ मेघ वृष्टि के द्वारा उस अन्न की उत्पत्ति का कारण बनता है और द्युलोकस्थ सूर्य अन्तरिक्ष में मेघों के निर्माण का कारण बनता है। इस प्रकार ये सब लोक हमें अन्न प्राप्त कराते हैं, अतः मन्त्र में कहा है कि 'इन लोकों' से हमें अन्न प्राप्त हो। इस सारी व्यवस्था को देखकर हमें उस प्रभु की महिमा का दर्शन व स्मरण होता है। हम नतमस्तक हो जाते हैं और 'नमोऽस्तु ते' कह उठते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ-लोकत्रयी में निर्मित सभी पिण्ड प्रभु की महिमा को प्रकट कर रहे हैं और उन लोकों के द्वारा हमारी अन्न- प्राप्ति की सुन्दर व्यवस्था हो रही है।

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