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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 47
    ऋषिः - विरूप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराड ब्राह्मी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    इ॒मं मा हि॑ꣳसीर्द्वि॒पादं॑ प॒शुꣳ स॑हस्रा॒क्षो मेधा॑य ची॒यमा॑नः। म॒युं प॒शुं मेध॑मग्ने जुषस्व॒ तेन॑ चिन्वा॒नस्त॒न्वो निषी॑द। म॒युं ते॒ शुगृ॑च्छतु॒ यं द्वि॒ष्मस्तं ते॒ शुगृ॑च्छतु॥४७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम्। मा। हि॒ꣳसीः॒। द्वि॒पाद॒मिति द्वि॒ऽपाद॑म्। प॒शुम्। स॒ह॒स्रा॒क्ष इति॑ सहस्रऽअ॒क्षः। मेधा॑य। ची॒यमा॑नः। म॒युम्। प॒शुम्। मेध॑म्। अ॒ग्ने। जु॒ष॒स्व॒। तेन॑। चि॒न्वा॒नः। त॒न्वः᳖। नि। सी॒द॒। म॒युम्। ते॒। शुक्। ऋ॒च्छ॒तु॒। यम्। द्वि॒ष्मः। तम्। ते॒। शुक्। ऋ॒च्छ॒तु॒ ॥४७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमम्मा हिँसीर्द्विपादम्पशुँ सहस्राक्षो मेधाय चीयमानः । मयुम्पशुम्मेधमग्ने जुषस्व तेन चिन्वानस्तन्वो निषीद । मयुन्ते शुगृच्छतु यन्द्विष्मस्तन्ते शुगृच्छतु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इमम्। मा। हिꣳसीः। द्विपादमिति द्विऽपादम्। पशुम्। सहस्राक्ष इति सहस्रऽअक्षः। मेधाय। चीयमानः। मयुम्। पशुम्। मेधम्। अग्ने। जुषस्व। तेन। चिन्वानः। तन्वः। नि। सीद। मयुम्। ते। शुक्। ऋच्छतु। यम्। द्विष्मः। तम्। ते। शुक्। ऋच्छतु॥४७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 47
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    पदार्थ -
    १. गत मन्त्र के अनुसार सब जंगम स्थावर के अन्दर प्रभु व्याप्त हो रहे हैं। सबमें प्रभु की व्याप्ति को देखनेवाला कभी किसी की हिंसा नहीं कर सकता, अतः प्रभु कहते हैं कि २. (इमम्) = इस (द्विपादं पशुम्) = दो पाँववाले पुरुषरूप पशु को (मा हिंसी:) = मत हिंसित कर। सभी मनुष्यों का तू भला चाहनेवाला बन, औरों के अहित से तेरा हित सिद्ध होनेवाला नहीं। ३. (सहस्राक्षः) = तू हज़ारों आँखोंवाला हो, व्यापक दृष्टिकोणवाला हो। ४. (मेधाय) = तू तो उस प्रभु के साथ सङ्गम [मेधृ सङ्गमे to meet ] के लिए (चीयमानः) = अपने में शक्तियों का सञ्चय व वर्धन करनेवाला बन। जब मनुष्य का उद्देश्य भौतिक हो जाता है तभी वह संकुचित भी बनता है और औरों की हिंसा से अपने पोषण का विचार करता है। ५. हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! (मयुं पशुम्) = यह जो मृगविशेष पशु है (मेधम्) = [शुद्धम् ] जो बड़ा शुद्ध व निर्दोष - किसी का बुरा चिन्तन न करनेवाला है, उसे तू (जुषस्व) = प्रेम करनेवाला बन । (तेन) = उससे (तन्वः) = शरीर की शक्तियों को (चिन्वानः) = बढ़ाता हुआ (निषीद) = तू यहाँ स्थित हो। मयु कृष्णमृग है। ऋषियों के आश्रमों में इन मृगों का हम विशिष्ट स्थान देखते हैं, अतः यह हमारे जीवन के साथ निकटता से सम्बद्ध है । ६. हाँ, जो हरिण बहुत बढ़कर खेती आदि की हानि का कारण बनें उस (मयुम्) = हरिण को (ते) = तेरा (शुक्) = मन्यु (ऋच्छतु) = प्राप्त हो, (तम्) = उस हरिण को ही (ते शुक्) = तेरा क्रोध (ऋच्छतु) = प्राप्त हो (यं द्विष्मः) = जिसे हम कृष्यादि विनाशक होने से अवाञ्छनीय समझते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- हम सब मनुष्यों का भला करें। व्यापक दृष्टिकोणवाले बनें। प्रभु सङ्गम के लिए अपनी शक्तियों का वर्धन करें। मयु आदि पशुओं से भी, अपने जीवन के लिए उन्हें उपयोगी जानते हुए प्रेम करनेवाले बनें। नाशक प्राणियों पर ही हमारा क्रोध हो ।

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