यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 42
ऋषिः - विरूप ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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वात॑स्य जू॒तिं वरु॑णस्य॒ नाभि॒मश्वं॑ जज्ञा॒नꣳ स॑रि॒रस्य॒ मध्ये॑। शिशुं॑ न॒दीना॒ हरि॒मद्रि॑बुध्न॒मग्ने॒ मा हि॑ꣳसीः पर॒मे व्यो॑मन्॥४२॥
स्वर सहित पद पाठवात॑स्य। जू॒तिम्। वरु॑णस्य। नाभि॑म्। अश्व॑म्। ज॒ज्ञा॒नम्। स॒रि॒रस्य॑। मध्ये॑। शिशु॑म्। न॒दीना॑म्। हरि॑म्। अद्रि॑बुध्न॒मित्यद्रि॑बुध्नम्। अग्ने॑। मा। हि॒ꣳसीः॒। प॒र॒मे। व्यो॑म॒न्निति॒ विऽओ॑मन् ॥४२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वातस्य जूतिँवरुणस्य नाभिमश्वञ्जज्ञानँ सरिरस्य मध्ये । शिशुन्नदीनाँ हरिमद्रिबुध्नमग्ने मा हिँसीः परमे व्योमन् ॥
स्वर रहित पद पाठ
वातस्य। जूतिम्। वरुणस्य। नाभिम्। अश्वम्। जज्ञानम्। सरिरस्य। मध्ये। शिशुम्। नदीनाम्। हरिम्। अद्रिबुध्नमित्यद्रिबुध्नम्। अग्ने। मा। हिꣳसीः। परमे। व्योमन्निति विऽओमन्॥४२॥
विषय - मा हिंसी:
पदार्थ -
१. विरूप के लिए कहते हैं कि अपनी इस विरूपता को स्थिर रखने के लिए (मा हिंसी:) = निम्नलिखित वस्तुओं को नष्ट मत होने दे - [क] (वातस्य) = वायु की (जूतिम्) = [जूतिर्गति:, वायुवत् शीघ्रगतिम् - म० ] गति को अर्थात् वायु की भाँति शीघ्रगति को । वायु की अविच्छिन्न गति के समान तेरे जीवन में सदा क्रिया हो, तू कभी अकर्मण्य न बने। [ख] (वरुणस्य नाभिम्) = द्वेष-निवारण की देवता के बन्धन [नह बन्धने] को व्रत को तू अपने को इस दृढ़ बन्धन में बाँध कि तूने कभी किसी से द्वेष नहीं करना । शक्ति की अल्पता के कारण हम सबका भला करने में समर्थ न हो सकेंगे, परन्तु 'किसी से द्वेष न करना, किसी के अहित की बात को मन में नहीं आने देना' इस व्रत का पालन तो असम्भव नहीं है। [ग] (सरिरस्य) = [सृ गतौ] गतिशीलता के तथा [सरिरं=जलं, 'सरस्वती' - ज्ञान-जल के प्रवाहवाली] ज्ञान - जल के (मध्ये) = बीच में (जज्ञानम्) = विकसित होते हुए (अश्वम्) = इन्द्रिय-समूह को । तू अपनी कर्मेन्द्रियों को सदा क्रिया में व्याप्त रख तथा ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान जल का ग्रहण करनेवाला बन। अपने-अपने कार्य में लगी हुई इन्द्रियाँ ही सबल बनती हैं। सबल बनने के साथ वे विषयों की ओर झुकाववाली भी नहीं होतीं । २. विरूप के लिए अन्तिम बात यह कहते हैं कि अग्ने हे अग्रगति के साधक विरूप! तू (नदीनाम्) = स्तोताओं के (शिशुम्) = सन्तान, उनके हृदयों में प्रकट होने के कारण उनके सन्तानतुल्य [हृदयात् अधिजायसे] अथवा [शो तनूकरणे] स्तोताओं की बुद्धि तीव्र करनेवाले (हरिम्) = बुद्धि देकर दुःखों का हरण करनेवाले (अद्रिबुध्नम्) = [अ+दृ] न विदारण के योग्य अथवा न नष्ट होनेवाले सबके आधारभूत (परमे व्योमन्) = तेरे उत्कृष्ट हृदयाकाश में स्थित प्रभु को (मा हिंसी:) = मत नष्ट कर, आँख से ओझल मत होने दे [नश अदर्शने]। अपने हृदय में सदा इस प्रभु का दर्शन कर और वायुवत् कार्यों में लगा रह ।
भावार्थ - भावार्थ - १. विरूप- विशिष्ट रूपवाले के लिए क्रिया इस प्रकार स्वाभाविक हो जाए जैसे वायु के लिए। २, वह किसी से द्वेष न करे। ३. इन्द्रियों को गति व ज्ञान में रखकर विकसित शक्तिवाला हो और ४. हृदयदेश में स्थित उस प्रभु को कभी भूले नहीं जो स्तोताओं के ज्ञान को बढ़ाते हैं, उनके कष्टों का निवारण करते हैं, और उनके न हिंसित होने का आधार बनते हैं।
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