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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वत्सार ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अ॒पां पृ॒ष्ठम॑सि॒ योनि॑र॒ग्नेः स॑मु॒द्रम॒भितः॒ पिन्व॑मानम्। वर्ध॑मानो म॒हाँ२ऽआ च॒ पुष्क॑रे दि॒वो मात्र॑या वरि॒म्णा प्र॑थस्व॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पाम्। पृ॒ष्ठम्। अ॒सि॒। योनिः॑। अ॒ग्नेः। स॒मु॒द्रम्। अ॒भितः॑। पिन्व॑मानम्। वर्ध॑मानः। म॒हान्। आ। च॒। पुष्क॑रे। दि॒वः। मात्र॑या। व॒रि॒म्णा। प्र॒थ॒स्व॒ ॥२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपाम्पृष्ठमसि योनिरग्नेः समुद्रमभितः पिन्वमानम् । वर्धमानो महाँऽआ च पुष्करे दिवो मात्रया वरिम्णा प्रथस्व ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अपाम्। पृष्ठम्। असि। योनिः। अग्नेः। समुद्रम्। अभितः। पिन्वमानम्। वर्धमानः। महान्। आ। च। पुष्करे। दिवः। मात्रया। वरिम्णा। प्रथस्व॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 2
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    पदार्थ -
    १. मन्त्र का ऋषि 'वत्सार' प्रभु को अपने में धारण करना चाहता है। गत मन्त्र में उसने स्पष्ट कहा है कि मेरी सर्वप्रथम इच्छा यही है कि मैं अपने अन्दर प्रभु को ग्रहण करूँ, अत: वह प्रभु का स्तवन करता हुआ कहता है कि (अपां पृष्ठम् असि) = आप जलों के आधार हो । 'वरुण' नाम से आप जलों के पतिरूप में कहे जाते हो। आपका नाम ही 'अप्पति' हो गया है। ये जल अपनी अद्भुत रचना से हमें आपकी महिमा का स्मरण कराते हैं। जल की अवयवभूत 'उद्रजन' ज्वलनशील है 'अम्लजन' ज्वलन की पोषक है। इन्हें मिलानेवाली विद्युत् है। एवं सब अग्नि-ही-अग्नि है, परन्तु इनसे उत्पन्न होनेवाला जल अग्नि को शान्त करनेवाला है, इस प्रकार उष्णता से शीतता की उत्पत्ति होती है। कितना आश्चर्य है! २. (अग्नेः योनिः) = हे प्रभो ! आप ही अग्नि के भी उत्पत्तिकारण हैं। अग्नि को भी आप ही जन्म देते हैं। द्युलोक में यह अग्नि सूर्यरूप से है, अन्तरिक्षलोक में विद्युद्रूप से और इस पृथिवी पर उसका नाम 'अग्नि' है। एवं लोकत्रयी में व्याप्त होनेवाली अग्नि वस्तुत: 'जातवेद' है - प्रत्येक पदार्थ में विद्यमान है। ३. (अभितः) = पृथिवी पर चारों ओर से (पिन्वमानम्) = नदी - जलों से सींचे जाते हुए अथवा बढ़ते हुए (समुद्रम्) = समुद्र को (वर्धमानः) = बढ़ानेवाले आप ही हो। वृष्टि के द्वारा नदियाँ प्रवाहित होती हैं। इन नदियों से समुद्र का पूरण होता है। ४. (महान्) = हे प्रभो! आप सचमुच महान् हो । क्या जल, क्या अग्नि, क्या समुद्र - सभी आपकी महिमा का गायन करते हैं । ५. हे प्रभो! आप (पुष्करे) = कमलवत् निर्लेप मेरे हृदयाकाश में, अथवा आपकी भावना का पोषण करनेवाले इस हृदय में (दिवः मात्रया) = ज्ञान की मात्रा से, ज्ञान की मापनशक्ति से तथा (वरिम्णा) = विस्तार से, उदारता से (आप्रथस्व) = व्याप्त होओ, प्रसिद्ध होओ, विस्तृत होओ, अर्थात् मैं ज्ञान तथा हृदय की विशालता और पवित्रता से आपका दर्शन कर पाऊँ ।

    भावार्थ - भावार्थ-जलों में, अग्नि में व समुद्रों में प्रभु की महिमा का प्रकाश हो रहा है। मैं अपने ज्ञान को बढ़ाकर पवित्र व विशाल हृदय में प्रभु का दर्शन करूँ ।

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