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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 43
    ऋषिः - विरूप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अज॑स्र॒मिन्दु॑मरु॒षं भु॑र॒ण्युम॒ग्निमी॑डे पू॒र्वचि॑त्तिं॒ नमो॑भिः। स पर्व॑भिर्ऋतु॒शः कल्प॑मानो॒ गां मा हि॑ꣳसी॒रदि॑तिं वि॒राज॑म्॥४३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अज॑स्रम्। इन्दु॑म्। अ॒रु॒षम्। भु॒र॒ण्युम्। अ॒ग्निम्। ई॒डे॒। पू॒र्वचि॑त्ति॒मिति॑ पू॒र्वऽचि॑त्तिम्। नमो॑भि॒रिति॒ नमः॑ऽभिः। सः। पर्व॑भि॒रिति॒ पर्व॑ऽभिः। ऋ॒तु॒श इत्यृ॑तु॒ऽशः। कल्प॑मानः। गाम्। मा। हि॒ꣳसीः॒। अदि॑तिम्। वि॒राज॒मिति॑ वि॒ऽराज॑म् ॥४३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अजस्रमिन्दुमरुषम्भुरण्युमग्निमीडे पूर्वचित्ति नमोभिः । स पर्वभिरृतुशः कल्पमानो गाम्मा हिँसीरदितिं विराजम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अजस्रम्। इन्दुम्। अरुषम्। भुरण्युम्। अग्निम्। ईडे। पूर्वचित्तिमिति पूर्वऽचित्तिम्। नमोभिरिति नमःऽभिः। सः। पर्वभिरिति पर्वऽभिः। ऋतुश इत्यृतुऽशः। कल्पमानः। गाम्। मा। हिꣳसीः। अदितिम्। विराजमिति विऽराजम्॥४३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 43
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    पदार्थ -
    १. पिछले मन्त्र की प्रेरणा को सुनकर 'विरूप' कहता है कि मैं (अग्निम्) = अग्रेणी प्रभु की (नमोभिः) = नमनों के द्वारा, अभिमान को छोड़कर नम्रता धारण के द्वारा (ईडे) = स्तुति करता हूँ। जो प्रभु २. (अजस्त्रम्) = [अनुपक्षीणम् - द०] कभी क्षीण नहीं होते। मैं भी तो इस अनुपक्षीण प्रभु का स्तवन करता हुआ अक्षीण बन पाऊँगा। ३. (इन्दुम्) = [ इन्द to be pow= जो प्रभु erful ] जो प्रभु सर्वशक्तिमान् हैं अथवा जो प्रभु परमैश्वर्यवाले हैं। ४. (अरुषम्) = [अ-रुष्] क्रोधशून्य हैं। वस्तुतः अनुपक्षीणता व शक्तिमत्ता का रहस्य है ही अक्रोध में। क्रोध से ऊपर उठकर मैं भी क्षय व निर्बलता से ऊपर उठता हूँ। ५. (भुरण्युम्) = सबका भरण करनेवाले हैं। वे प्रभु अपनी सर्वशक्तिमत्ता व परमैश्वर्य से सभी का भरण कर रहे हैं, भी यथाशक्ति भरण करनेवाला बनूँ। ६. (पूर्वचित्तिम्) = सृष्टि के प्रारम्भ में अग्नि आदि मैं ऋषियों को वेदज्ञान देनेवाले प्रभु को में उपासित करता हूँ। सच्चा उपासक बनकर मैं भी उस चिति व ज्ञान का अधिकारी बनता हूँ। ७. 'विरूप' के इस संकल्प को सुनकर प्रभु कहते हैं कि सः वह तू पर्वभिः पर्वों से, पूर्णिमा व अमावास्या से तथा (ऋतुशः) = ऋतु-ऋतु से (कल्पमानः) = अपने को शक्तिशाली बनाता हुआ (गाम्) = वेदवाणी को (अदितिम्) = अखण्डन व स्वास्थ्य को (विराजम्) = विशिष्ट शासन को (मा हिंसी:) = मत नष्ट होने दे, अर्थात् 'पूर्णिमा' के दिन 'मुझे पूर्ण बनना है-प्राणादि सोलह-की-सोलह कालाओं को अपने में संगृहीत करनेवाला होना है' इस भावना को दृढ़ कर । अमावस के दिन 'साथ रहने की भावना - मिलकर चलने की वृत्ति को दृढ़ कर। ग्रीष्म में पसीने के साथ सब मलिनता को दूर करके पवित्र बनने की भावनावाला हो। वर्षा में सबपर सुखों की वृष्टि करने की भावनावाला हो।' सब मलों को शीर्ण करना सीख ! हेमन्त तुझे गति व वृद्धि की प्रेरणा दे रहा है और शिशिर [शश प्लुतगतौ ] तुझे स्फूर्ति से क्रिया करनेवाला बनाये। इस प्रकार पर्वों व ऋतुओं से प्रेरणा लेता हुआ तू अपने को शक्तिशाली बना। अपने जीवन में कभी वेदज्ञान की वाणियों को नष्ट न होने दे। तेरा स्वाध्याय सतत चले यही तेरा परम तप हो। ज्ञान के द्वारा विषयासक्ति को दूर करके तू अपने स्वास्थ्य को स्थिर रख। तेरा स्वास्थ्य खण्डित न हो [health का break down न हो] । इस स्वास्थ्य को शारीरिक ही नहीं अपितु मानस स्वास्थ्य को भी नष्ट न होने देने के लिए तू विराजम्-अपनी इन्द्रियों व मन का उत्तम शासन करनेवाला बन। इस प्रकार ज्ञान [गौ:] तेरे मस्तिष्क को, अदिति तेरे शरीर को तथा विराज तेरे मन को दीप्त करनेवाले होंगे और यही तेरा सच्चा स्तवन भी होगा।

    भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु का स्मरण करें और ज्ञान, स्वास्थ्य व मानस शासन को नष्ट न होने दें।

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