यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 40
अ॒ग्निर्ज्योति॑षा॒ ज्योति॑ष्मान् रु॒क्मो वर्च॑सा॒ वर्च॑स्वान्। स॒ह॒स्र॒दाऽ अ॑सि स॒हस्रा॑य त्वा॥४०॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निः। ज्योति॑षा। ज्योति॑ष्मान्। रु॒क्मः। वर्च॑सा। वर्च॑स्वान्। स॒ह॒स्र॒दा इति॑ सहस्र॒ऽदाः। अ॒सि॒। स॒हस्रा॑य। त्वा॒ ॥४० ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निर्ज्यातिषा ज्योतिष्मान्रुक्मो वर्चसा वर्चस्वान् । सहस्रदाऽअसि सहस्राय त्वा॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्निः। ज्योतिषा। ज्योतिष्मान्। रुक्मः। वर्चसा। वर्चस्वान्। सहस्रदा इति सहस्रऽदाः। असि। सहस्राय। त्वा॥४०॥
विषय - अग्नि+रुक्म
पदार्थ -
१. गत मन्त्र के अनुसार ज्योति प्राप्त करनेवाला व्यक्ति उन्नति पथ पर निरन्तर आगे बढ़ता है, अतः कहते हैं कि (अग्निः) = यह प्रकाशमय जीवनवाला व निरन्तर आगे बढ़नेवाला व्यक्ति (ज्योतिषा ज्योतिष्मान्) = ज्ञान की ज्योति से उत्तम ज्योतिवाला होता है और साथ ही (रुक्मः) = यह स्वास्थ्य की दीप्ति से चमकनेवाला (वर्चसः) = शरीर में होनेवाली वर्चस् शक्ति से- रोगकृमियों का संहार करनेवाली शक्ति से (वर्चस्वान्) वर्चस्वी बनता है। [प्रभा - ज्योतिः, शरीरगतकान्तिः=वर्च : ] । संक्षेप में यह 'ब्रह्म और क्षत्र' दोनों का विकास करता है। इसकी बुद्धि ज्ञान से दीप्त है, तो शरीर स्वास्थ्य की दीप्ति से । २. ज्ञानी व स्वस्थ बनकर यह संसार में धनार्जन करनेवाला होता है, परन्तु उस धन को यह जोड़ता नहीं रहता। (सहस्रदाः असि) = सहस्रसंख्यक धनों का देनेवाला होता है 'शतहस्त समाहर, सहस्रहस्त संकिर'- यह सैकड़ों हाथों से कमाता है, तो हज़ारों हाथों से देता भी है। ३. (त्वा) = इस देनेवाले तुझे (सहस्राय) = [स+हस्] मैं सदा आनन्दमयता प्रदान करता हूँ। वस्तुतः देने में ही आनन्द है। प्रभु पूर्णरूप से दाता है, अतः वे पूर्ण आनन्दवाले हैं। जीव भी जितने अंश में दान करनेवाला होता है, उतने ही अनुपात में आनन्द का अनुभव करता है।
भावार्थ - भावार्थ- हम अग्नि बनकर ज्ञान ज्योति से चमकें और वर्चस्वी बनकर रुक्म [तेजस्वी] हों। खूब कमाएँ, खूब दें, जिससे हमारा जीवन आनन्दमय हो ।
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