Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 2/ मन्त्र 24
    सूक्त - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - रुद्र सूक्त

    तुभ्य॑मार॒ण्याः प॒शवो॑ मृ॒गा वने॑ हि॒ता हं॒साः सु॑प॒र्णाः श॑कु॒ना वयां॑सि। तव॑ य॒क्षं प॑शुपते अ॒प्स्वन्तस्तुभ्यं॑ क्षरन्ति दि॒व्या आपो॑ वृ॒धे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तुभ्य॑म् । आ॒र॒ण्या: । प॒शव॑: । मृ॒गा: । वने॑ । हि॒ता: । हं॒सा: । सु॒ऽप॒र्णा: । श॒कु॒ना: । वयां॑सि । तव॑ । य॒क्षम् । प॒शु॒ऽप॒ते॒ । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । तुभ्य॑म् । क्ष॒र॒न्ति॒ । दि॒व्या: । आप॑: । वृ॒धे ॥२.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तुभ्यमारण्याः पशवो मृगा वने हिता हंसाः सुपर्णाः शकुना वयांसि। तव यक्षं पशुपते अप्स्वन्तस्तुभ्यं क्षरन्ति दिव्या आपो वृधे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तुभ्यम् । आरण्या: । पशव: । मृगा: । वने । हिता: । हंसा: । सुऽपर्णा: । शकुना: । वयांसि । तव । यक्षम् । पशुऽपते । अप्ऽसु । अन्त: । तुभ्यम् । क्षरन्ति । दिव्या: । आप: । वृधे ॥२.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 24

    पदार्थ -

    १. (तुभ्यम्) = तेरे शासन के मानने के लिए ही ये सब (आरण्याः पशव:) = वन्य पशु हैं। आपसे ही (वने) = वन में (मृगाः) = हरिण, शार्दूल, सिंह आदि पशु, (हंसा:) = हंस, (सुपर्णा:) = शोभनपतनवाले श्येन आदि, (शकुना:) = शक्तिशाली गृध्र आदि (वयांसि) = [वनचर] पक्षी (हिता:) = स्थापित किये गये हैं। २. (तव) = आपका (यक्षम्) = पूजनीय अंश ही (अप्सु अन्त:) = सब प्रजाओं के अन्दर है। (दिव्या: आप:) = ये अन्तरिक्षस्थ जल (तुभ्यं वृधे) = आपको महिमा को बढ़ाने के लिए ही (क्षरन्ति) = क्षरित हो रहे हैं। बरसते हुए मेघों में प्रभु की महिमा दृष्टिगोचर होती है।

    भावार्थ -

    सब आरण्य पशु-पक्षी प्रभु के शासन में ही गति कर रहे हैं। प्रजाओं में भी वह-वह विभूति उस प्रभु के अंश के कारण ही है। बरसते हुए मेघों में भी प्रभु को हो महिमा दिखती है।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top