अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 2/ मन्त्र 28
भव॑ राज॒न्यज॑मानाय मृड पशू॒नां हि प॑शु॒पति॑र्ब॒भूथ॑। यः श्र॒द्दधा॑ति॒ सन्ति॑ दे॒वा इति॒ चतु॑ष्पदे द्वि॒पदे॑ऽस्य मृड ॥
स्वर सहित पद पाठभव॑ । रा॒ज॒न् । यज॑मानाय । मृ॒ड॒ । प॒शू॒नाम् । हि । प॒शु॒ऽपति॑: । ब॒भूथ॑ । य: । श्र॒त्ऽदधा॑ति । सन्ति॑ । दे॒वा: । इति॑ । चतु॑:ऽपदे । द्वि॒ऽपदे॑ । अ॒स्य॒ । मृ॒डे॒ ॥२.२८॥
स्वर रहित मन्त्र
भव राजन्यजमानाय मृड पशूनां हि पशुपतिर्बभूथ। यः श्रद्दधाति सन्ति देवा इति चतुष्पदे द्विपदेऽस्य मृड ॥
स्वर रहित पद पाठभव । राजन् । यजमानाय । मृड । पशूनाम् । हि । पशुऽपति: । बभूथ । य: । श्रत्ऽदधाति । सन्ति । देवा: । इति । चतु:ऽपदे । द्विऽपदे । अस्य । मृडे ॥२.२८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 28
विषय - श्रद्धा, निष्पक्षता व सुख
पदार्थ -
१. हे (भव) = सर्वोत्पादक! (राजन्) = सर्वशासक प्रभो! (यजमानाय) = यज्ञशील पुरुष के लिए (मृड) = आप सुख दीजिए। आप (हि) = निश्चय से (पशूनां पशुपति: बभूथ) = सब पशुओं [प्राणियों] के रक्षक व स्वामी हैं। २. (य:) = जो (इति श्रदधाति) = इसप्रकार विश्वास रखता है कि (देवा: सन्ति) = आपकी दिव्यशक्तियाँ सर्वत्र सत्तावाली हैं, (अस्य) = इस श्रद्धालु के (द्विपदे) = दो पाँववाले मनुष्यों के लिए तथा (चतुष्पदे) = चार पाँववाले "गौ, अश्व, अजा, अवि' आदि पशुओं के लिए (मृड) = सुख दीजिए। प्रभुशक्तियों की सार्वत्रिक सत्ता में विश्वास करनेवाला व्यक्ति पाप से बचता है और परिणामत: प्रभुकृपा का पात्र होता है।
भावार्थ -
वे सर्वोत्पादक, सर्वशासक प्रभु यज्ञशील पुरुषों का रक्षण करते हैं। प्रभुशक्ति की सार्वत्रिक सत्ता का विश्वासी मनुष्य निष्पाप व सुखी जीवनवाला बनता है।
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