अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 2/ मन्त्र 30
रु॒द्रस्यै॑लबका॒रेभ्यो॑ऽसंसूक्तगि॒लेभ्यः॑। इ॒दं म॒हास्ये॑भ्यः॒ श्वभ्यो॑ अकरं॒ नमः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठरु॒द्रस्य॑ । ऐ॒ल॒ब॒ऽका॒रेभ्य॑: । अ॒सं॒सू॒क्त॒ऽगि॒लेभ्य॑: । इ॒दम् । म॒हाऽआ॑स्येभ्य: । श्वऽभ्य॑: । अ॒क॒र॒म् । नम॑: ॥२.३०॥
स्वर रहित मन्त्र
रुद्रस्यैलबकारेभ्योऽसंसूक्तगिलेभ्यः। इदं महास्येभ्यः श्वभ्यो अकरं नमः ॥
स्वर रहित पद पाठरुद्रस्य । ऐलबऽकारेभ्य: । असंसूक्तऽगिलेभ्य: । इदम् । महाऽआस्येभ्य: । श्वऽभ्य: । अकरम् । नम: ॥२.३०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 30
विषय - श्वभ्यः नमः
पदार्थ -
१. (रुद्रस्य) = शत्रुओं का रोदन करानेवाले रुद्र के लिए (ऐलवकारेभ्य:) = [ऐलवानि-इल प्रेरणे] प्रेरणायुक्त कर्मों को करनेवाले लोगों के लिए (नमः अकरम्) = मैं नमस्कार करता हूँ। प्रभु की प्रेरणा के अनुसार चलनेवालों के लिए नमस्कार करता हूँ (अ-संसूक्त-गिलेभ्य:) = अशुभ भाषणों को निगल जानेवालों के लिए-कभी अशुभ न बोलनेवाले (श्वभ्य:) = [शिव गतिवद्धयोः] गति द्वारा वृद्धि को प्राप्त करनेवाले इन आदरणीय पुरुषों के लिए (इदं) = [नमः अकरम्] नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ -
उस रुद्र के इन पुरुषों के लिए मैं आदरपूर्वक प्रणाम करता है जोकि [क] प्रभु प्रेरणायुक्त कर्मों को करते हैं। [ख] कभी अपशब्द नहीं बोलते। [ग] जिनके मुख से महनीय शब्दों का ही उच्चारण होता है। [घ] जो गति द्वारा उन्नति-पथ पर बढ़ रहे हैं।
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