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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 2/ मन्त्र 31
    सूक्त - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा विपरीतपादलक्ष्मा त्रिष्टुप् सूक्तम् - रुद्र सूक्त

    नम॑स्ते घो॒षिणी॑भ्यो॒ नम॑स्ते के॒शिनी॑भ्यः। नमो॒ नम॑स्कृताभ्यो॒ नमः॑ संभुञ्ज॒तीभ्यः॑। नम॑स्ते देव॒ सेना॑भ्यः स्व॒स्ति नो॒ अभ॑यं च नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नम॑: । ते॒ । घो॒षिणी॑भ्य: । नम॑: । ते॒ । के॒शिनी॑भ्य: । नम॑: । नम॑:ऽकृताभ्य: । नम॑: । स॒म्ऽभु॒ञ्ज॒तीभ्य॑: । नम॑: । ते॒ । दे॒व॒ । सेना॑भ्य: । स्व॒स्ति । न॒: । अभ॑यम् । च॒ । न॒: ॥२.३१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नमस्ते घोषिणीभ्यो नमस्ते केशिनीभ्यः। नमो नमस्कृताभ्यो नमः संभुञ्जतीभ्यः। नमस्ते देव सेनाभ्यः स्वस्ति नो अभयं च नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नम: । ते । घोषिणीभ्य: । नम: । ते । केशिनीभ्य: । नम: । नम:ऽकृताभ्य: । नम: । सम्ऽभुञ्जतीभ्य: । नम: । ते । देव । सेनाभ्य: । स्वस्ति । न: । अभयम् । च । न: ॥२.३१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 31

    पदार्थ -

    १.हे रुद्र! (ते) = आपसे (घोषिणीभ्यः) = प्रेरित वेदवाणियों की घोषणा करनेवाली (सेनाभ्य:) = [स+इन-स्वामी] सदा आपके साथ रहनेवाली [आपका स्मरण करनेवाली] इन प्रजाओं के लिए (नम:) = हम नमस्कार करते हैं। हे प्रभो! (ते) = आपकी इन (केशिनीभ्य:) = प्रकाश की रश्मियोंवाली [केश A ray of light] प्रजाओं के लिए (नम:) = नतमस्तक होते हैं। (नमस्कृताभ्य:) = आपको प्रणाम करनेवाली इन प्रजाओं के लिए (नमः) = प्रणाम करते हैं। (संभुञ्जतीभ्यः) = मिलकर भोजन करनेवाली व सम्यक् पालन करनेवाली प्रजाओं के लिए (नम:) = प्रणाम है। २. हे देव-प्रकाशमय प्रभो! (ते) = आपकी इन [सेनाभ्यः] सदा आपके स्मरण के साथ गति करनेवाली प्रजाओं के लिए (नमः) = हमारा नमस्कार हो। इसप्रकार (न:) = हमें भी (स्वस्ति) = कल्याण (च) = और (अभयम्) = निर्भयता प्राप्त हो।

    भावार्थ -

    हम उन प्रजाओं को प्रणाम करते हैं जोकि [क] प्रभु-प्रदत्त वेदवाणियों की घोषणा करती हैं। [ख] प्रकाश की रश्मियोंवाली हैं [ग] प्रभु को प्रणाम करनेवाली हैं [घ] सबका सम्यक् पालन करनेवाली व मिलकर खानेवाली हैं तथा [ङ] सदा प्रभुस्मरण के साथ निवासवाली हैं। इसप्रकार हम भी कल्याण व निर्भयता को प्राप्त करते हैं।

    सदा प्रभु-स्मरण के साथ रहनेवाले ये व्यक्ति अन्तर्मुखी वृत्तिवाले 'अथर्वा' [अथ अर्वाङ] बनते हैं। यही अगले सूक्त का ऋषि है। ब्रह्म [ज्ञान] ही इनका भोजन होता है। इस ब्रह्मौदन [बार्हस्पत्यौदन] का एक विराट् शरीर के रूप में इस सूक्त में वर्णन है -

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