अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 2/ मन्त्र 18
श्या॒वाश्वं॑ कृ॒ष्णमसि॑तं मृ॒णन्तं॑ भी॒मं रथं॑ के॒शिनः॑ पा॒दय॑न्तम्। पूर्वे॒ प्रती॑मो॒ नमो॑ अस्त्वस्मै ॥
स्वर सहित पद पाठश्या॒वऽअ॑श्वम् । कृ॒ष्णम् । असि॑तम् । मृ॒णन्त॑म् । भी॒मम् । रथ॑म् । के॒शिन॑: । पा॒दय॑न्तम् । पूर्वे॑ । प्रति॑ । इ॒म॒: । नम॑: । अ॒स्तु॒ । अ॒स्मै॒ ॥२.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
श्यावाश्वं कृष्णमसितं मृणन्तं भीमं रथं केशिनः पादयन्तम्। पूर्वे प्रतीमो नमो अस्त्वस्मै ॥
स्वर रहित पद पाठश्यावऽअश्वम् । कृष्णम् । असितम् । मृणन्तम् । भीमम् । रथम् । केशिन: । पादयन्तम् । पूर्वे । प्रति । इम: । नम: । अस्तु । अस्मै ॥२.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 18
विषय - 'श्यावाश्व' प्रभु को प्रणाम
पदार्थ -
१. (श्यावाश्वम्) = [श्यैङ्गतौ, अश् व्याप्तौ] गतिमात्र में व्याप्तिवाले, अर्थात् सम्पूर्ण गतियों के कारणभूत, (कृष्णम्) = सबको आकृष्ट करनेवाले (असितम्) = अबद्ध, (मृणन्तम्) = शत्रुओं को हिंसित करते हुए, (भीमम्) = शत्रु-भयंकर, (केशिन:) = प्रकाश की किरणरूप केशोंवाले सूर्य के (रथम्) = रथ को (पादयन्तम्) = गति देते हुए उस प्रभु को (पूर्वे) = अपना पालन व पूरण करनेवाले हम (प्रतीमः) = [प्रति इम:] जानते हैं उसके साक्षात्कार के लिए प्रयत्न करते हैं। (अस्मै नमः अस्तु) = इस प्रभु के लिए नमस्कार हो।
भावार्थ -
हम प्रभु का इस रूप में स्मरण करते हैं कि वे गतिमात्र के स्रोत हैं, सबका आकर्षण करनेवाले, अबद्ध, शत्रुओं का संहार करनेवाले व शत्रुभयंकर हैं। सूर्य के रथ को गति देनेवाले उस प्रभु का हम अपना पालन व पूरण करते हुए साक्षात्कार करते हैं और उस प्रभु के प्रति नतमस्तक होते हैं।
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