अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 2/ मन्त्र 14
भ॑वारु॒द्रौ स॒युजा॑ संविदा॒नावु॒भावु॒ग्रौ च॑रतो वी॒र्याय। ताभ्यां॒ नमो॑ यत॒मस्यां॑ दि॒शी॒तः ॥
स्वर सहित पद पाठभ॒वा॒रु॒द्रौ । स॒ऽयुजा॑ । स॒म्ऽवि॒दा॒नौ । उ॒भौ । उ॒ग्रौ । च॒र॒त॒: । वी॒र्या᳡य । ताभ्या॑म् । नम॑: । य॒त॒मस्या॑म् । दि॒शि । इ॒त: ॥२.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
भवारुद्रौ सयुजा संविदानावुभावुग्रौ चरतो वीर्याय। ताभ्यां नमो यतमस्यां दिशीतः ॥
स्वर रहित पद पाठभवारुद्रौ । सऽयुजा । सम्ऽविदानौ । उभौ । उग्रौ । चरत: । वीर्याय । ताभ्याम् । नम: । यतमस्याम् । दिशि । इत: ॥२.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 14
विषय - भव: रुद्रः
पदार्थ -
१. (भवारुद्रौ) = 'सृष्टि को उत्पन्न करनेवाले व अन्ततः प्रलय करनेवाले' प्रभु के ये दोनों रूप (सयुजौ) = परस्पर मेलवाले व (संविदानौ) = ऐकमत्यवाले हैं। इनमें विरोध हो, ऐसी बात नहीं। प्रारम्भ करने के समय प्रभु 'भव' हैं, समाप्त करने के समय वे 'रुद्र' हैं। (उभौ उग्रौ) = ये भव और रुद्र दोनों उद्गुर्ण बलवाले हैं। वीर्याय (चरत:) = शक्तिशाली कर्म के लिए गतिवाले होते हैं। २. (इत:) = यहाँ से (यतमस्यां दिशि) = जिस भी दिशा में वे भव और रुद्र हैं (ताभ्यां नम:) = हम उन दोनों के लिए उस दिशा में नमस्कार करते हैं। पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण, ऊपर-नीचे' सब ओर हम प्रभु को भव और रुद्र के रूप में देखते हैं और उन्हे नमस्कार करते हैं।
भावार्थ -
हम 'सृष्टि व प्रलय' रूप दोनों कार्यों में प्रभु की महिमा का अनुभव करें और उस भव और रुद्ररूप प्रभु को सब ओर नमस्कार करें।
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