अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 2/ मन्त्र 16
नमः॑ सा॒यं नमः॑ प्रा॒तर्नमो॒ रात्र्या॒ नमो॒ दिवा॑। भ॒वाय॑ च श॒र्वाय॑ चो॒भाभ्या॑मकरं॒ नमः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठनम॑: । सा॒यम् । नम॑: । प्रा॒त: । नम॑: । रात्र्या॑ । नम॑: । दिवा॑ । भ॒वाय॑ । च॒ । श॒र्वाय॑ । च॒ । उ॒भाभ्या॑म् । अ॒क॒र॒म् । नम॑: ॥२.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
नमः सायं नमः प्रातर्नमो रात्र्या नमो दिवा। भवाय च शर्वाय चोभाभ्यामकरं नमः ॥
स्वर रहित पद पाठनम: । सायम् । नम: । प्रात: । नम: । रात्र्या । नम: । दिवा । भवाय । च । शर्वाय । च । उभाभ्याम् । अकरम् । नम: ॥२.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 16
विषय - 'भवाय शर्वाय नमः
पदार्थ -
१. हे (रुद्र) = दु:खों के द्रावक प्रभो ! (आयते ते नमः अस्तु) = हमारे अभिमुख आते हुए आपके लिए नमस्कार हो, (परायते नमः अस्तु) = दूर जाते हुए भी आपके लिए नमस्कार हो। (तिष्ठते ते नमः) खड़े होते हुए आपके लिए नमस्कार हो, (उत) = और आसीनाय (ते नम:) = बैठे हुए आपके लिए नमस्कार हो। निराकार प्रभु में इन आने-जाने व उठने की क्रियाओं का सम्भव नहीं है, परन्तु पुरुषरूप में प्रभु का ध्यान करता हुआ उपासक प्रभु को इन रूपों में देखता है। २. (सायं नमः) = सायं नमस्कार हो, (प्रातः नमः) = प्रात:काल नमस्कार हो, (रात्र्या नमः) = रात्रि के समय नमस्कार हो, (दिवा नम:) = दिन के समय नमस्कार हो। (भवाय च शर्वाय च उभाभ्याम्) = सृष्टि के उत्पादक व संहारक दोनों रूपोवाले प्रभु के लिए मैं नम: अकरम् नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ -
हम आते-जाते, उठते-बैठते, प्रभु के लिए नमस्कार करें। प्रात: व सायं तथा दिन में व रात में प्रभु को उत्पादक व प्रलयकर्ता के रूप में सोचते हुए नतमस्तक हों।
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