अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 2/ मन्त्र 13
यो॒भिया॑तो नि॒लय॑ते॒ त्वां रु॑द्र नि॒चिकी॑र्षति। प॒श्चाद॑नु॒प्रयु॑ङ्क्षे॒ तं वि॒द्धस्य॑ पद॒नीरि॑व ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒भिऽया॑त: । नि॒ऽलय॑ते । त्वाम् । रु॒द्र॒ । नि॒ऽचिकी॑र्षति । प॒श्चात् । अ॒नु॒ऽप्रयु॑ङ्क्षे । तम् । वि॒ध्दस्य॑ । प॒द॒नी:ऽइ॑व ॥२.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
योभियातो निलयते त्वां रुद्र निचिकीर्षति। पश्चादनुप्रयुङ्क्षे तं विद्धस्य पदनीरिव ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अभिऽयात: । निऽलयते । त्वाम् । रुद्र । निऽचिकीर्षति । पश्चात् । अनुऽप्रयुङ्क्षे । तम् । विध्दस्य । पदनी:ऽइव ॥२.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 13
विषय - भागकर कहाँ जाऐंगे?
पदार्थ -
१.हे (रुद्र) = दुष्टों को रुलानेवाले प्रभो! जो भी पापकर्ता (अभियात:) = तुझसे अभिगत [आक्रान्त] होता हुआ (निलयते) = छुपाने की कोशिश करता है, और (त्वो निचिकीर्षति) = आपको हिंसित करना चाहता है, आप (पश्चात्) = एकदम इसके बाद ही (तम् अनुप्रयक्षे) = उस अपकारी जन को यथापराध दण्डित करते हैं। उसी प्रकार दण्डित करते हैं (इव) = जैसेकि (विद्धस्य पदनी:) = शस्त्रहत पुरुष के भूमि-निक्षिस पैरों के निशान देखता हुआ पुरुष शत्रु के निलयन-स्थान तक पहुँचकर उस शत्रु को प्रतिविद्ध करता है।
भावार्थ -
पापकर्ता पुरुष प्रभु के बाण से अपने को बचा नहीं सकते। कहीं भी छिपकर भाग जाए, कितना भी प्रभु का हिंसन करना चाहे, वह रुद्र के बाणों का गोचर होकर ही रहता है।
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