अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 2/ मन्त्र 23
यो॒न्तरि॑क्षे॒ तिष्ठ॑ति॒ विष्ट॑भि॒तोऽय॑ज्वनः प्रमृ॒णन्दे॑वपी॒यून्। तस्मै॒ नमो॑ द॒शभिः॒ शक्व॑रीभिः ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒न्तरि॑क्षे । तिष्ठ॑ति । विऽस्त॑भित: । अय॑ज्वन: । प्र॒ऽमृ॒णन् । दे॒व॒ऽपी॒यून् । तस्मै॑ । नम॑: । द॒शऽभि॑: । शक्व॑रीभि: ॥२.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
योन्तरिक्षे तिष्ठति विष्टभितोऽयज्वनः प्रमृणन्देवपीयून्। तस्मै नमो दशभिः शक्वरीभिः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अन्तरिक्षे । तिष्ठति । विऽस्तभित: । अयज्वन: । प्रऽमृणन् । देवऽपीयून् । तस्मै । नम: । दशऽभि: । शक्वरीभि: ॥२.२३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 23
विषय - 'अयज्वा देवपीयु' का दण्डन
पदार्थ -
१. (य:) = जो प्रभु (अन्तरिक्षे) = इस द्यावापृथिवी के मध्य में-अन्तरिक्ष में सर्वत्र (विष्टभित:) = स्थिर हुए-हुए (तिष्ठति) = ठहरे हैं, वे (अयज्वन:) = अयज्ञशील (देवपीयून्) = देवों के सज्जनों के हिंसक पुरुषों को (प्रमृणन्) = कुचल देते हैं। (तस्मै) = उस रुद्र प्रभु के लिए (दशभिः) = दसों (शक्वरीभि:) = कमों में शक्त अंगुलियों से (नमः) = नमस्कार हो, अर्थात् उन रुद्र के लिए हम अञ्जलिबन्धन द्वारा प्रणाम करते हैं।
भावार्थ -
प्रभु आकाशवत् सर्वत्र स्थित हैं[ओम् खं ब्रह्म]। वे अयज्ञशील, देवहिंसक पुरुषों को पीड़ित करते हैं। हम प्रभु को प्रणाम करते हुए यज्ञशील व सज्जन-सेवक ही बनें।
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