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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 2/ मन्त्र 9
    सूक्त - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् सूक्तम् - रुद्र सूक्त

    च॒तुर्नमो॑ अष्ट॒कृत्वो॑ भ॒वाय॒ दश॒ कृत्वः॑ पशुपते॒ नम॑स्ते। तवे॒मे पञ्च॑ प॒शवो॒ विभ॑क्ता॒ गावो॒ अश्वाः॒ पुरु॑षा अजा॒वयः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    च॒तु: । नम॑: । अ॒ष्ट॒ऽकृत्व॑: । भ॒वाय॑ । दश॑ । कृत्व॑: । प॒शु॒ऽप॒ते॒ । नम॑: । ते॒ । तव॑ । इ॒मे । पञ्च॑ । प॒शव॑: । विऽभ॑क्ता: । गाव॑: । अश्वा॑: । पुरु॑षा । अ॒ज॒ऽअ॒वय॑: ॥२.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चतुर्नमो अष्टकृत्वो भवाय दश कृत्वः पशुपते नमस्ते। तवेमे पञ्च पशवो विभक्ता गावो अश्वाः पुरुषा अजावयः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चतु: । नम: । अष्टऽकृत्व: । भवाय । दश । कृत्व: । पशुऽपते । नम: । ते । तव । इमे । पञ्च । पशव: । विऽभक्ता: । गाव: । अश्वा: । पुरुषा । अजऽअवय: ॥२.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 9

    पदार्थ -

    १. (भवाय) = संसार को उत्पन्न करनेवाले प्रभु के लिए (चतुः) = चार बार, चार ही बार क्यों? (अष्टकृत्व:) = आठ बार (नमः) = नमस्कार हो। पूर्वादि चारों दिशाओं में नमस्कार हो, और चार ही क्यों? अवान्तर दिशाओं को मिलाकर आठों दिशाओं में प्रभु के लिए हमारा नमस्कार हो। हे (पशुपते) = सब प्राणियों के रक्षक प्रभो ! (दशकृत्व:) = दस बार (ते नम:) = आपके लिए नमस्कार हो। चार दिशा, चार अवान्तर दिशा तथा नीचे-ऊपर [धुवा-ऊर्ध्वा] को मिलाकर दस बार प्रभु को प्रणाम हो। २. हे प्रभो! (इमे) = ये (पञ्च पशवः) = पाँच पशु (तव) = आपके (विभक्ता:) = [वि भज् सेवायाम्] विशिष्ट रूप से सेवित है-आपके ये स्वभूत ही हैं-दाहिनी ओर (गाव: अश्वा:) = गौ व घोड़े, बीच में (पुरुषा:) = मनुष्य तथा बायी ओर (अजावयः) = बकरी व भेड़ें। वस्तुत: गौवें व घोड़े मनुष्य के दाहिने हाथ हैं, तो अजा-अवि उसके बायें हाथ के समान हैं। मानव-उन्नति में इन चारों पशुओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

    भावार्थ -

    हम सब दिशाओं में प्रभु के लिए प्रणाम करते हैं। पशुपति प्रभु ने मनुष्य को केन्द्र में रखकर उसकी उन्नति में साधनभूत गौ-घोड़े, अजा व अवि आदि पशुओं को बनाया है।

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