अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 2/ मन्त्र 15
नम॑स्तेऽस्त्वाय॒ते नमो॑ अस्तु पराय॒ते। नम॑स्ते रुद्र॒ तिष्ठ॑त॒ आसी॑नायो॒त ते॒ नमः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठनम॑: । ते॒ । अ॒स्तु॒ । आ॒ऽय॒ते । नम॑: । अ॒स्तु॒ । प॒रा॒ऽय॒ते । नम॑: । ते॒ । रु॒द्र॒ । तिष्ठ॑ते । आसी॑नाय । उ॒त । ते॒ । नम॑: ॥२.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
नमस्तेऽस्त्वायते नमो अस्तु परायते। नमस्ते रुद्र तिष्ठत आसीनायोत ते नमः ॥
स्वर रहित पद पाठनम: । ते । अस्तु । आऽयते । नम: । अस्तु । पराऽयते । नम: । ते । रुद्र । तिष्ठते । आसीनाय । उत । ते । नम: ॥२.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 15
विषय - 'भवाय शर्वाय नमः
पदार्थ -
१. हे (रुद्र) = दु:खों के द्रावक प्रभो ! (आयते ते नमः अस्तु) = हमारे अभिमुख आते हुए आपके लिए नमस्कार हो, (परायते नमः अस्तु) = दूर जाते हुए भी आपके लिए नमस्कार हो। (तिष्ठते ते नमः) खड़े होते हुए आपके लिए नमस्कार हो, (उत) = और आसीनाय (ते नम:) = बैठे हुए आपके लिए नमस्कार हो। निराकार प्रभु में इन आने-जाने व उठने की क्रियाओं का सम्भव नहीं है, परन्तु पुरुषरूप में प्रभु का ध्यान करता हुआ उपासक प्रभु को इन रूपों में देखता है। २. (सायं नमः) = सायं नमस्कार हो, (प्रातः नमः) = प्रात:काल नमस्कार हो, (रात्र्या नमः) = रात्रि के समय नमस्कार हो, (दिवा नम:) = दिन के समय नमस्कार हो। (भवाय च शर्वाय च उभाभ्याम्) = सृष्टि के उत्पादक व संहारक दोनों रूपोवाले प्रभु के लिए मैं नम: अकरम् नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ -
हम आते-जाते, उठते-बैठते, प्रभु के लिए नमस्कार करें। प्रात: व सायं तथा दिन में व रात में प्रभु को उत्पादक व प्रलयकर्ता के रूप में सोचते हुए नतमस्तक हों।
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