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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 2/ मन्त्र 19
    सूक्त - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - विराड्गायत्री सूक्तम् - रुद्र सूक्त

    मा नो॒ऽभि स्रा॑ म॒त्यं देवहे॒तिं मा नः॑ क्रुधः पशुपते॒ नम॑स्ते। अ॒न्यत्रा॒स्मद्दि॒व्यां शाखां॒ वि धू॑नु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । न॒: । अ॒भि । स्रा॒: । म॒त्य᳡म् । दे॒व॒ऽहे॒तिम् । मा । न॒: । क्रु॒ध॒: । प॒शु॒ऽप॒ते॒ । नम॑: । ते॒ । अ॒न्यत्र॑ । अ॒स्मत् । दि॒व्याम् । शाखा॑म् । व‍ि । धू॒नु॒ ॥२.१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा नोऽभि स्रा मत्यं देवहेतिं मा नः क्रुधः पशुपते नमस्ते। अन्यत्रास्मद्दिव्यां शाखां वि धूनु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । न: । अभि । स्रा: । मत्यम् । देवऽहेतिम् । मा । न: । क्रुध: । पशुऽपते । नम: । ते । अन्यत्र । अस्मत् । दिव्याम् । शाखाम् । व‍ि । धूनु ॥२.१९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 19

    पदार्थ -

    १. हे (पशुपते) = प्राणियों के रक्षक प्रभो। (मत्यम्) = [मते समीकरणे साध: A harrow] सबको बराबर कर देनेवाली (देवहेतिम्) = इस दिव्य अस्त्ररूप विद्युत् को (न:) = हमारा (मा अभिस्त्रा:) = लक्ष्य करके मत फैकिए। हमपर आकाश से यह बिजली न गिर पड़े। गिरती हुई विद्युत् सबको गिराती हुई समीकृत-सा कर देती है। (न: मा कुधः) = हमारे प्रति आप क्रोध न कीजिए-हम पाप से बचते हुए आपके क्रोध-पात्र न हों। (नम: ते) = हम आपके लिए नतमस्तक होते हैं। २. इस (दिव्याम्) = आकाश में होनेवाली-अलौकिक-(शाखाम्) = [खे शेते, शक्रोतेर्वा-नि०] आकाश में शयन करनेवाली शक्तिशाली विद्युत् को (अस्मत् अन्यत्र) = हमसे भिन्न अन्य स्थान में ही (विधूनु) = कम्पित कीजिए। हम विद्युत्पतन के शिकार न हों।

    भावार्थ -

    जीवन को स्वाभाविक व सरल बनाते हुए हम विद्युत्पतन आदि आधिदैविक आपत्तियों के शिकार न हों।

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