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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 2/ मन्त्र 8
    सूक्त - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - महाबृहती सूक्तम् - रुद्र सूक्त

    स नो॑ भ॒वः परि॑ वृणक्तु वि॒श्वत॒ आप॑ इवा॒ग्निः परि॑ वृणक्तु नो भ॒वः। मा नो॒ऽभि मां॑स्त॒ नमो॑ अस्त्वस्मै ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । न॒: । भ॒व: । परि॑ । वृ॒ण॒क्तु॒ । वि॒श्वत॑: । आप॑:ऽइव । अ॒ग्नि: । परि॑ । वृ॒ण॒क्तु॒ । न॒: । भ॒व: । मा । न॒: । अ॒भि । मां॒स्त॒ । नम॑: । अ॒स्तु॒ । अ॒स्मै॒ ॥२.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स नो भवः परि वृणक्तु विश्वत आप इवाग्निः परि वृणक्तु नो भवः। मा नोऽभि मांस्त नमो अस्त्वस्मै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । न: । भव: । परि । वृणक्तु । विश्वत: । आप:ऽइव । अग्नि: । परि । वृणक्तु । न: । भव: । मा । न: । अभि । मांस्त । नम: । अस्तु । अस्मै ॥२.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 8

    पदार्थ -

    १. (सः भव:) = वह सुखोत्पादक प्रभु (न:) = हमें (विश्वतः परिवृणक्तु) = सब ओर से उपद्रवों से वर्जित [रहित] करे। (इव) = जैसे (अग्निः) = दग्ध करता हुआ (अग्नि आप:) = जलों को छोड़ देता है, इसी प्रकार (भव:) = वह उत्पादक प्रभु (न:) = हमें (परिवृणक्तु) = उपद्रवसमूह से परिवर्जित करे। २. पाप से रहित (न:) = हमें (मा अभिमांस्त) = वे प्रभु हिंसित न करें [मन्यतिहिंसाकर्मा]। (अस्मै) = इस प्रभु के लिए (नमः अस्तु) = हमारा सदा नमस्कार हो। यह प्रभु-नमन ही वस्तुतः हमें पापों व उपद्रवों से बचानेवाला बनता है।

    भावार्थ -

    प्रभकृपा से पाप हमें इसप्रकार छोड़ जाएँ, जैसेकि अग्नि जलों को छोड़ जाता है। हम रुद्र को प्रणाम करनेवाले बनें, रुद्र हमारे पापों का विनाश करें।

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