अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 8/ मन्त्र 17
सूक्त - कौरुपथिः
देवता - अध्यात्मम्, मन्युः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
सर्वे॑ दे॒वा उपा॑शिक्ष॒न्तद॑जानाद्व॒धूः स॒ती। ई॒शा वश॑स्य॒ या जा॒या सास्मि॒न्वर्ण॒माभ॑रत् ॥
स्वर सहित पद पाठसर्वे॑ । दे॒वा: । उप॑ । अ॒शि॒क्ष॒न् । तत् । अ॒जा॒ना॒त् । व॒धू: । स॒ती । ई॒शा । वश॑स्य । या । जा॒या । सा । अ॒स्मि॒न् । वर्ण॑म् । आ । अ॒भ॒र॒त् ॥१०.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
सर्वे देवा उपाशिक्षन्तदजानाद्वधूः सती। ईशा वशस्य या जाया सास्मिन्वर्णमाभरत् ॥
स्वर रहित पद पाठसर्वे । देवा: । उप । अशिक्षन् । तत् । अजानात् । वधू: । सती । ईशा । वशस्य । या । जाया । सा । अस्मिन् । वर्णम् । आ । अभरत् ॥१०.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 8; मन्त्र » 17
विषय - वर्ण को भरनेवाली 'ईशा'
पदार्थ -
१. (सर्वे देवा:) = इन्द्रादि सब देवों ने (उपाशिक्षन्) = समीप होकर शक्त होना चाहा। (वधूः सती) = परमेश्वर से जिसका विवाह हुआ है, उस आद्या चिद्रूपिणी शक्ति ने (तत् अजानात्) = देवो से किये गये उस संकल्प को जाना। ऐतरेयोपनिषद् में यही भाव इन शब्दों में कहा गया है ('ता एनमबुवन् आयतनं नः प्रजानीहि यस्मिन् प्रतिष्ठता अन्नमदामेति')। २. तब (या) = यह जो (वशस्य) = सम्पूर्ण संसार को वश में करनेवाले ईश की (जाया) = पत्नी के रूप में (ईशा) = ईशाना नियन्त्री मायाशक्ति है, (सा) = उस पारमेश्वरी शक्ति ने ही (अस्मिन्) = इस पाट्कौशिक छह तहों में लिपटे हुए शरीर में (वर्णम् आभरत्) = गौर-कृष्णादि वर्ण प्राप्त कराया।
भावार्थ -
प्रभु ही देवों के एकत्रनिवास के लिए इस षाट्कौशिक शरीर को बनाते हैं। वे ही अपनी शक्ति से इसमें गौर-कृष्ण आदि वर्णों को भरते हैं।
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