अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 8/ मन्त्र 18
सूक्त - कौरुपथिः
देवता - अध्यात्मम्, मन्युः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
य॒दा त्वष्टा॒ व्यतृ॑णत्पि॒ता त्वष्टु॒र्य उत्त॑रः। गृ॒हं कृ॒त्वा मर्त्यं॑ दे॒वाः पुरु॑ष॒मावि॑शन् ॥
स्वर सहित पद पाठय॒दा । त्वष्टा॑ । वि॒ऽअतृ॑णत् । पि॒ता । त्वष्टु॑: । य: । उत्त॑र: । गृ॒हम् । कृ॒त्वा । मर्त्य॑म् । दे॒वा: । पुरु॑षम् । आ । अ॒वि॒श॒न् ॥१०.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
यदा त्वष्टा व्यतृणत्पिता त्वष्टुर्य उत्तरः। गृहं कृत्वा मर्त्यं देवाः पुरुषमाविशन् ॥
स्वर रहित पद पाठयदा । त्वष्टा । विऽअतृणत् । पिता । त्वष्टु: । य: । उत्तर: । गृहम् । कृत्वा । मर्त्यम् । देवा: । पुरुषम् । आ । अविशन् ॥१०.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 8; मन्त्र » 18
विषय - उत्तरः त्वष्टा
पदार्थ -
२. (यदा) = जब (त्वष्टुः) = कर्मों के द्वारा अपने शरीर आदि का निर्माण करनेवाले जीव का (यः पिता) = जो प्रभुरूष पिता है, उन्हीं (उत्तरः त्वष्टा) = सर्वोत्कृष्ट निर्माता प्रभु ने (व्यतृणत्) = इस शरीर में इन्द्रियरूप छिद्रों को बनाया तब (देवा:) = सूर्य आदि देव (मर्त्यं पुरुषम्) = इस मरणधर्मा पुरुषशरीर को (गृहं कृत्वा) = घर बनाकर (आविशन्) = प्रविष्ट हो गये। ('सूर्यः चक्षुर्भूत्वाक्षिणी प्राविशत्०') = सूर्य चक्षु बनकर आँखों में, वायु प्राण बनकर नासिका में, अग्नि वाणी बनकर मुख में, चन्द्रमा मन बनकर हृदय में ऐसे ही अन्य देव अन्य-अन्य स्थानों में प्रविष्ट हो गये।
भावार्थ -
जीव के कर्मानुसार शरीर बनता है, अत: जीव तो इसका 'वष्टा' है ही, परन्तु कर्मानुसार इन योनियों में प्राप्त करानेवाला प्रभु 'उत्तर त्वष्टा' है। वह इन शरीरों में इन्द्रिय-द्वारों को बना देता है और देव उन स्थानों में आकर आसीन हो जाते हैं।
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