अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 8/ मन्त्र 13
सूक्त - कौरुपथिः
देवता - अध्यात्मम्, मन्युः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
सं॒सिचो॒ नाम॒ ते दे॒वा ये सं॑भा॒रान्त्स॒मभ॑रन्। सर्वं॑ सं॒सिच्य॒ मर्त्यं॑ दे॒वाः पुरु॑ष॒मावि॑शन् ॥
स्वर सहित पद पाठस॒म्ऽसिच॑: । नाम॑ । ते । दे॒वा: । ये । स॒म्ऽभा॒रान् । स॒म्ऽअभ॑रन् । सर्व॑म् । स॒म्ऽसिच्य॑ । मर्त्य॑म् । दे॒वा: । पुरु॑षम् । आ । अ॒वि॒श॒न् ॥१०.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
संसिचो नाम ते देवा ये संभारान्त्समभरन्। सर्वं संसिच्य मर्त्यं देवाः पुरुषमाविशन् ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽसिच: । नाम । ते । देवा: । ये । सम्ऽभारान् । सम्ऽअभरन् । सर्वम् । सम्ऽसिच्य । मर्त्यम् । देवा: । पुरुषम् । आ । अविशन् ॥१०.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 8; मन्त्र » 13
विषय - संसिचो नाम ते देवा:
पदार्थ -
१. (ये देवा:) = मन्त्र १० में कहे गये ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियात्मक जो दश देव हैं अथवा अधिष्ठातसहित प्राणापानादि हैं, वे संभारन-[संधियन्ते इति] केश आदि को (समभरन्) = एक स्थान पर संभृत करनेवाले हुए। (ते देवाः संसिचः नाम) = [सम् सिञ्चन्ति] बे देव सब संभारों को एकत्र करके बन्धक रस से बाँधते हैं, इसी से वे 'संसिच' नामवाले हैं-वे संसेचन समर्थ संधायक हैं। २. वे (देवा:) = देव (मर्त्यम्) = इस मरणधर्मा (सर्वम्) = सम्पूर्ण शरीर को (संसिच्य) = रुधिर से (आर्द्र) = करके (पुरुषम् आविशन्) = पुरुषाकृति करके इसमें प्रविष्ट हुए।
भावार्थ -
जब तक शरीर में प्राणों का निवास है तब तक ही प्राणाधिष्ठित शरीर सब व्यवहारों को करने में समर्थ होता है, अत: प्राणदेव ही पृथिव्यादि पंचभूतात्माओं से उत्पन्न केश अस्थ्यादि धातुमय पुरुष शरीर को प्रविष्ट करके रह रहे हैं।
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