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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 3/ मन्त्र 11
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - शाला छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शाला सूक्त

    यस्त्वा॑ शाले निमि॒माय॑ संज॒भार॒ वन॒स्पती॑न्। प्र॒जायै॑ चक्रे त्वा शाले परमे॒ष्ठी प्र॒जाप॑तिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । त्वा॒ । शा॒ले॒ । नि॒ऽमि॒माय॑ । स॒म्ऽज॒भार॑ । वन॒स्पती॑न् । प्र॒ऽजायै॑ । च॒क्रे॒ । त्वा॒ । शा॒ले॒ । प॒र॒मे॒ऽस्थी । प्र॒जाऽप॑ति: ॥३.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्त्वा शाले निमिमाय संजभार वनस्पतीन्। प्रजायै चक्रे त्वा शाले परमेष्ठी प्रजापतिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । त्वा । शाले । निऽमिमाय । सम्ऽजभार । वनस्पतीन् । प्रऽजायै । चक्रे । त्वा । शाले । परमेऽस्थी । प्रजाऽपति: ॥३.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 3; मन्त्र » 11

    पदार्थ -

    १. हे (शाले) = गृह ! (यः त्वा निमिमाय) = जो तुझे मानपूर्वक बनाता है और इस घर में (वनस्पतीन्) = वानस्पतिक पदार्थों का (संजभार) = संग्रह करता है,हे (शाले) = गृह | वह (त्वा) = तुझे (प्रजायै चक्रे) = उत्तम सन्तान के लिए बनाता है। जिस घर में मांस आदि पदार्थों का प्रवेश होता है, वह उत्तम सन्तानवाला नहीं बनता। २. उत्तम सन्तानों का निर्माता यह गृहपति (परमेष्ठी) = परम स्थान में स्थित होता है-मोक्ष को प्राप्त करता है और यहाँ (प्रजापति:) = प्रजाओं का रक्षक होता है|

    भावार्थ -

    घर को मानपूर्वक बनाना चाहिए। इसमें वानस्पतिक पदार्थों का ही संग्रह करना चाहिए. परिणामतः घर में सन्तान उत्तम होते हैं और यह गृहपति प्रजारक्षक होता हुआ मोक्ष प्राप्त करता है।

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