अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 3/ मन्त्र 14
अ॒ग्निम॒न्तश्छा॑दयसि॒ पुरु॑षान्प॒शुभिः॑ स॒ह। विजा॑वति॒ प्रजा॑वति॒ वि ते॒ पाशां॑श्चृतामसि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम् । अ॒न्त: । छा॒द॒य॒सि॒ । पुरु॑षान् । प॒शुऽभि॑: । स॒ह । विजा॑ऽवति । प्रजा॑ऽवति । वि । ते॒ । पाशा॑न् । चृ॒ता॒म॒सि॒ ॥३.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निमन्तश्छादयसि पुरुषान्पशुभिः सह। विजावति प्रजावति वि ते पाशांश्चृतामसि ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निम् । अन्त: । छादयसि । पुरुषान् । पशुऽभि: । सह । विजाऽवति । प्रजाऽवति । वि । ते । पाशान् । चृतामसि ॥३.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 3; मन्त्र » 14
विषय - अग्रिहोत्र व नीरोगता
पदार्थ -
१. हे (विजावति) = विविध पदार्थों को उत्पन्न करनेवाली (प्रजावति) = उत्तम सन्तानोंवाली शाले! तू (अन्त:) = अपने अन्दर (अग्निम्) = यज्ञाग्नि को (छादयसि) = सुरक्षितरूप में रखती है, (पशुभिः सह) = गौ आदि पशुओं के साथ (पुरुषान्) = इस घर के पुरुषों को भी सुरक्षित रखनेवाली है। नियमपूर्वक अग्निहोत्र होने से रोग नहीं होते और सभी स्वस्थ रहते हैं। २. हे शाले! हम (ते पाशान्) = तेरे जालों व बन्धनों को (विचृतामसि) = विशेषरूप से ग्रथित करते हैं।
भावार्थ -
जिस घर में नियमपूर्वक अग्निहोत्र होता है, वहाँ सब पुरुष और पशु स्वस्थ रहते हैं। प्रशस्त प्रजाओंवाले इस घर के बन्धनों को हम सुदृढ़ करते हैं।
इस भाष्य को एडिट करें