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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 3/ मन्त्र 16
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - शाला छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शाला सूक्त

    ऊर्ज॑स्वती॒ पय॑स्वती पृथि॒व्यां निमि॑ता मि॒ता। वि॑श्वा॒न्नं बिभ्र॑ती शाले॒ मा हिं॑सीः प्रतिगृह्ण॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊर्ज॑स्वती । पय॑स्वती । पृ॒थि॒व्याम् । निऽमि॑ता । मि॒ता । वि॒श्व॒ऽअ॒न्नम् । बिभ्र॑ती । शा॒ले॒ । मा । हिं॒सी॒: । प्र॒ति॒ऽगृ॒ह्ण॒त: ॥३.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्जस्वती पयस्वती पृथिव्यां निमिता मिता। विश्वान्नं बिभ्रती शाले मा हिंसीः प्रतिगृह्णतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्जस्वती । पयस्वती । पृथिव्याम् । निऽमिता । मिता । विश्वऽअन्नम् । बिभ्रती । शाले । मा । हिंसी: । प्रतिऽगृह्णत: ॥३.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 3; मन्त्र » 16

    पदार्थ -

    १. हे (शाले) = गृह ! तू (ऊर्जस्वती) = अन्न और रसवाली है, (पयस्वती) = प्रशस्त दूध से परिपूर्ण है। (पृथिव्याम्) = इस पृथिवी पर (मिता) = बड़े माप से (निमिता) ृ बनाई गई है। २. (विश्वान्नम्) ृ सब अत्रों को (बिभ्रती = ृ धारण करती हुई तू (प्रतिगृह्णतः मा हिंसी:) = तुझे स्वीकार करनेवालों का हिंसन मत कर।

    भावार्थ -

    हमारे घर अन्न, रस व दुग्ध से परिपूर्ण हों। ये बड़े मापकर बने हुए घर अन्नों को धारण करते हुए, इनमें रहनेवाले हम लोगों का हिंसन न करें।

    सूचना -

    सूचना-घरों में मांस का स्थान नहीं। मांस आया और स-वह माम्-मुझे ही खाता है [मां-स]।

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