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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - शाला छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शाला सूक्त

    उप॒मितां॑ प्रति॒मिता॒मथो॑ परि॒मिता॑मु॒त। शाला॑या वि॒श्ववा॑राया न॒द्धानि॒ वि चृ॑तामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒प॒ऽमिता॑म् । प्र॒ति॒ऽमिता॑म् । अथो॒ इति॑ । प॒रि॒ऽमिता॑म् । उ॒त । शाला॑या: । वि॒श्वऽवा॑राया: । न॒ध्दानि॑ । वि । चृ॒ता॒म॒सि॒ ॥ ३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपमितां प्रतिमितामथो परिमितामुत। शालाया विश्ववाराया नद्धानि वि चृतामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उपऽमिताम् । प्रतिऽमिताम् । अथो इति । परिऽमिताम् । उत । शालाया: । विश्वऽवाराया: । नध्दानि । वि । चृतामसि ॥ ३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 3; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. (विश्ववाराया:) = [वार-द्वार व वरणीय पदार्थ] सब ओर द्वारोंवाली व वरणीय पदार्थोंवाली (शालायाः = शाला की (उपमिताम्) = उपमायुक्त [देखने में सराहने योग्य] (प्रतिमिताम्) = प्रतिमानयुक्त [जिसके आमने-सामने की भीतें, द्वार, खिड़की आदि एक नाप में हों] (अथो) = और (परिमिताम्) = परिमाणयुक्त [चारों ओर से नापकर चौरस की हुई] बनावट को (उत) = और (नद्धानि) = बन्धनों को [चिनाई व काठ आदि के मेलों को] (विचृतामसि) = हम अच्छी प्रकार प्रथित करते हैं।

    भावार्थ -

    हम गृह को 'उपमित, प्रतिमित व परिमित' बनाने का ध्यान करें। इसमें सब ओर द्वार हों। यह सब वरणीय वस्तुओं से युक्त हो। इसके बन्धन दृढ़ व सुग्रथित हों।

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