अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 3/ मन्त्र 8
अक्षु॒मोप॒शं वित॑तं सहस्रा॒क्षं वि॑षू॒वति॑। अव॑नद्धम॒भिहि॑तं॒ ब्रह्म॑णा॒ वि चृ॑तामसि ॥
स्वर सहित पद पाठअक्षु॑म् । ओ॒प॒शम् । विऽत॑तम् । स॒ह॒स्र॒ऽअ॒क्षम् । वि॒षु॒ऽवति॑ । अव॑ऽनध्दम् । अ॒भिऽहि॑तम् । ब्रह्म॑णा । वि । चृ॒ता॒म॒सि॒ ॥३.८॥
स्वर रहित मन्त्र
अक्षुमोपशं विततं सहस्राक्षं विषूवति। अवनद्धमभिहितं ब्रह्मणा वि चृतामसि ॥
स्वर रहित पद पाठअक्षुम् । ओपशम् । विऽततम् । सहस्रऽअक्षम् । विषुऽवति । अवऽनध्दम् । अभिऽहितम् । ब्रह्मणा । वि । चृतामसि ॥३.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 3; मन्त्र » 8
विषय - ओपशं अक्षु
पदार्थ -
१. जब कभी घरों पर कुछ लम्बे यज्ञों का विधान होता है तब उन यज्ञ के दिनों में केन्द्रीभूत दिन "विधूवत्' कहाता है [The central day in sacrifical session] | इस (विषुवति) = यज्ञों के केन्द्रीभूत दिन के अवसर पर (ओपशम्) = गृह के शिरोभूषणरूप इस (अक्षुम्) = जाल को (ब्रह्मणा) = वेद के निर्देशानुसार-ज्ञानपूर्वक (विचृतामसि) = विशेषरूप से ग्रथित करते हैं। २. यह जाल (विततम्) = फैला हुआ-विस्तृत है, (सहस्त्राक्षम्) = हज़ारों आँखों-झरोखोंवाला है, (अवनद्धम्) = नीचे से सम्यक् बद्ध है तथा (अभिहितम्) = चारों ओर से सम्यक् बद्ध हुआ है।
भावार्थ -
यज्ञों के अवसर पर केन्द्रीभूत [मुख्य] दिन में घर में जो जाल [तम्बू]-सा लगाया जाए वह शोभा को बढ़ानेवाला, प्रकाश व वायु के लिए सहस्रों झरोखोंवाला, नीचे से चारों ओर से सम्यक् बद्ध हो।
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