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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 3/ मन्त्र 18
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - शाला छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शाला सूक्त

    इट॑स्य ते॒ वि चृ॑ता॒म्यपि॑नद्धमपोर्णु॒वन्। वरु॑णेन॒ समु॑ब्जितां मि॒त्रः प्रा॒तर्व्युब्जतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इट॑स्य । ते॒ । वि । चृ॒ता॒मि॒ । अप‍ि॑ऽनध्दम् । अ॒प॒ऽऊ॒र्णु॒वन् । वरु॑णेन । सम्ऽउ॑ब्जिताम् । मि॒त्र: । प्रा॒त: । वि । उ॒ब्ज॒तु॒ ॥३.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इटस्य ते वि चृताम्यपिनद्धमपोर्णुवन्। वरुणेन समुब्जितां मित्रः प्रातर्व्युब्जतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इटस्य । ते । वि । चृतामि । अप‍िऽनध्दम् । अपऽऊर्णुवन् । वरुणेन । सम्ऽउब्जिताम् । मित्र: । प्रात: । वि । उब्जतु ॥३.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 3; मन्त्र » 18

    पदार्थ -

    १. हे शाले! (ते) = तेरे (इटस्य अपिनद्धम्) = [इट गती, गमनागमन स्थानस्य-क्षेम०] गमनागमन द्वार के बन्धन को (अपोर्णवन्) = समय-समय पर खोलता हुआ (विचृतामि) = पुन: विशेरूप से ग्रथित करता हूँ। द्वार के खोलने और बन्द करने का ध्यान रखता हूँ। २. (वरुणेन समुब्जिताम्) = आवरक अन्धकार से आवृत हुई-हुई तुझ शाला को (प्रात:) = रात्रि की समाति पर प्रात: (मित्रः) = सूर्य (व्युब्जतु) = पुन: प्रकाशमय कर दे।

    भावार्थ -

    हमारी शालाओं के द्वार अन्धकार के समय बन्द होकर प्रात: सूर्य के प्रकाश के स्वागत के लिए खुल जाएँ। घर में सूर्य का प्रकाश सम्यक् प्रवेश पाये।

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