अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 3/ मन्त्र 24
मा नः॒ पाशं॒ प्रति॑ मुचो गु॒रुर्भा॒रो ल॒घुर्भ॑व। व॒धूमि॑व त्वा शाले यत्र॒कामं॑ भरामसि ॥
स्वर सहित पद पाठमा । न॒: । पाश॑म् । प्रति॑ । मु॒च॒: । गु॒रु: । भा॒र: । ल॒घु: । भ॒व॒ । व॒धूम्ऽइ॑व । त्वा॒ । शा॒ले॒ । य॒त्र॒ऽकाम॑म् । भ॒रा॒म॒सि॒ ॥३.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
मा नः पाशं प्रति मुचो गुरुर्भारो लघुर्भव। वधूमिव त्वा शाले यत्रकामं भरामसि ॥
स्वर रहित पद पाठमा । न: । पाशम् । प्रति । मुच: । गुरु: । भार: । लघु: । भव । वधूम्ऽइव । त्वा । शाले । यत्रऽकामम् । भरामसि ॥३.२४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 3; मन्त्र » 24
विषय - घर, न कि सतत बन्धन
पदार्थ -
१. हे (शाले) = गृह ! तू (नः पाशं मा प्रतिमुच:) हमारे लिए बन्धन करनेवाला न हो-हम सदा घर में ही बैंधे न रह जाएँ। (गुरु: भारः) = एक घर का भार बहुत है, (लघुः भव) = प्रभुकृपा से यह हल्का हो जाए। हम गृहस्थ के बोझ को उठाने में समर्थ हों और धीरे-धीरे अपने उत्तरदायित्वों को पूर्ण करते हुए हल्के हो सकें२. हे शाले! इसप्रकार उत्तरदायित्व के बोझ से रहित होकर अब हम इसी प्रकार तुझे (यत्र कामम्) = इच्छानुसार जहाँ-तहाँ (भरामसि) = ले जानेवाले हों, (इव) = जिस प्रकार कि हम एक दिन (वधूम्) = वधू को पितृगृह से इच्छानुसार अपने घर में लाये थे। एक दिन हम गृहस्थ बने थे। अब गृहस्थ के बोझ को सम्यक् उठाने के बाद वनस्थ होते हुए घर के बन्धन से मुक होते हैं तथा इच्छानुसार किसी अन्य स्थान में डेरा डालते हैं।
भावार्थ -
घर हमारे लिए सदा के लिए बन्धन न हो जाएँ। गृहस्थ का बोझ धीमे-धीमे हल्का होता जाए। अन्तत: इस बोझ का निर्वहन करके हम बनस्थ होकर इच्छानुसार स्थानान्तर में बसेरा करें।
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