अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 3/ मन्त्र 22
प्र॒तीचीं॑ त्वा प्रती॒चीनः॒ शाले॒ प्रैम्यहिं॑सतीम्। अ॒ग्निर्ह्यन्तराप॑श्च॒र्तस्य॑ प्रथ॒मा द्वाः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒तीची॑म् । त्वा॒ । प्र॒ती॒चीन॑: । शाले॑ । प्र । ए॒मि॒ । अहिं॑सतीम् । अ॒ग्नि: । हि । अ॒न्त: । आप॑: । च॒ । ऋ॒तस्य॑ । प्र॒थ॒मा । द्वा: ॥३.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रतीचीं त्वा प्रतीचीनः शाले प्रैम्यहिंसतीम्। अग्निर्ह्यन्तरापश्चर्तस्य प्रथमा द्वाः ॥
स्वर रहित पद पाठप्रतीचीम् । त्वा । प्रतीचीन: । शाले । प्र । एमि । अहिंसतीम् । अग्नि: । हि । अन्त: । आप: । च । ऋतस्य । प्रथमा । द्वा: ॥३.२२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 3; मन्त्र » 22
विषय - अग्नि: आपः
पदार्थ -
१. हे (शाले) = गृह ! (प्रतीचीम्) = मेरे सम्मुख स्थित हुई-हुई (अहिंसतीम्) = किसी भी प्रकार से हिंसन न करती हुई (त्वा) = तेरे प्रति (प्रतीचीन:) = मुख किये हुए आता हुआ (प्र एमि) = तुझे प्राप्त होता हूँ। (अन्तः हि) = तेरे अन्दर निश्चय से (अग्नि: आपः च) = अग्नि और जल-दोनों ही तत्त्व विद्यमान हैं जोकि (ऋतस्य) = यज्ञ के (प्रथमा द्वा:) = मुख्य द्वार हैं। प्रत्येक यज्ञ की सिद्धि के लिए 'अग्नि और जल' आवश्यक है।
भावार्थ -
हम अनुकूल परिस्थितिवाले घरों को प्राप्त हों। इन घरों में रोगादि से किसी भी प्रकार हमारा हिंसन न हो। घरों में 'अग्नि और जल' दोनों तत्त्व सुलभ हों, क्योंकि इन्हीं के द्वारा सब यज्ञ सिद्ध होंगे।
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