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  • यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 13
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    अ॒व॒तत्य॒ धनु॒ष्ट्व सह॑स्राक्ष॒ शते॑षुधे। नि॒शीर्य॑ श॒ल्यानां॒ मुखा॑ शि॒वो नः॑ सु॒मना॑ भव॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒व॒तत्येत्य॑व॒ऽतत्य॑। धनुः॑। त्वम्। सह॑स्रा॒क्षेति॒ सह॑स्रऽअक्ष। शते॑षुध॒ इति॒ शत॑ऽइषुधे। नि॒शीर्य्येति॑ नि॒ऽशीर्य॑। श॒ल्याना॑म्। मुखा॑। शि॒वः। नः॒। सु॒मना॒ इति॑ सु॒ऽमनाः॑। भ॒व॒ ॥१३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवतत्य धनुष्ट्वँ सहस्राक्ष शतेषुधे । निशीर्य शल्यानाम्मुखा शिवो नः सुमना भव ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अवतत्येत्यवऽतत्य। धनुः। त्वम्। सहस्राक्षेति सहस्रऽअक्ष। शतेषुध इति शतऽइषुधे। निशीर्य्येति निऽशीर्य। शल्यानाम्। मुखा। शिवः। नः। सुमना इति सुऽमनाः। भव॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 16; मन्त्र » 13
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    भावार्थ -
    हे (सहस्राक्ष) चर आदि प्रणिधि और सभा के विद्वान् सभासदों रूप हजारों आखों वाले राजन् ! हे (शतेषुधे) सैकड़ों बाणों के रखने के तुणीर और शस्त्रागारों वाले ! तू (धनुः अवतत्य) धनुष को तान कर और (शल्यानाम् मुखा ) बाणों के फलों के मुखों को खूब तेज करके भी (नः) हमारे लिये ( शिवः ) कल्याणकारी और ( सुमनाः भव ) हमारे प्रति शुभ चित्त वाला होकर रह ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - निचृदार्ष्यनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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