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  • यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 2
    ऋषिः - परमेष्ठी वा कुत्स ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - स्वराडर्ष्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    या ते॑ रुद्र शि॒वा त॒नूरघो॒राऽपा॑पकाशिनी। तया॑ नस्त॒न्वा शन्त॑मया॒ गिरि॑शन्ता॒भि चा॑कशीहि॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या। ते॒। रु॒द्र॒। शि॒वा। त॒नूः। अघो॑रा। अपा॑पकाशि॒नीत्यपा॑पऽकाशिनी। तया॑। नः॒। त॒न्वा᳕। शन्त॑म॒येति॒ शम्ऽत॑मया। गिरि॑श॒न्तेति॒ गिरि॑ऽशन्त। अ॒भि। चा॒क॒शी॒हि॒ ॥२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या ते रुद्र शिवा तनूरघोरापापकाशिनी । तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    या। ते। रुद्र। शिवा। तनूः। अघोरा। अपापकाशिनीत्यपापऽकाशिनी। तया। नः। तन्वा। शन्तमयेति शम्ऽतमया। गिरिशन्तेति गिरिऽशन्त। अभि। चाकशीहि॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 16; मन्त्र » 2
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    भावार्थ -
    हे (रुद्र) शत्रुओं के रुलाने और सज्जनों को सुख देने हारे ! राजन् ! (या) जो (ते) तेरी ( शिवा ) कल्याणकारिणी ( अघोरा ) अघोर, उपदवरहित, शान्त, सौम्य रूप वाली ( अपापकाशिनी ) पाप से अतिरिक्त पुण्य का ही प्रकाश करने वाली ( तनूः ) विस्तृत कानूनादि की व्यवस्था या आज्ञा रूप वाणी है ( तया ) उस ( तन्वा ) ( शन्तमया ) अति अधिक कल्याण और शान्तिदायिनी वाणी, राज्यव्यवस्था से, हे ( गिरिशन्त ) आज्ञारूप, व्यावस्था या वाणी से ही सब को शान्ति देने वाले ! तू ( अभि चाकशीहि ) सब को देख सब पर दृष्टि रख या तू राज्य का शासन कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - स्वराड् अनुष्टुप् । गांधारः ॥

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