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  • यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 51
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः देवता - रुद्रा देवताः छन्दः - निचृदार्षी यवमध्या त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    मीढु॑ष्टम॒ शिव॑तम शि॒वो नः॑ सु॒मना॑ भव। प॒र॒मे वृ॒क्षऽआयु॑धं नि॒धाय॒ कृत्तिं॒ वसा॑न॒ऽआ च॑र॒ पिना॑क॒म्बिभ्र॒दा ग॑हि॥५१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मीढु॑ष्टम। मीढु॑स्त॒मेति॒ मीढुः॑ऽतम। शिव॑त॒मेति॒ शिव॑ऽतम। शि॒वः। नः॒। सु॒मना॒ इति॑ सु॒ऽमनाः॑। भ॒व॒। प॒र॒मे। वृ॒क्षे। आयु॑धम्। नि॒धायेति॑ नि॒ऽधाय॑। कृत्ति॑म्। वसा॑नः। आ। च॒र॒। पिना॑कम्। बिभ्र॑त्। आ। ग॒हि॒ ॥५१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मीढुष्टम शिवतम शिवो नः सुमना भव । परमे वृक्ष आयुधन्निधाय कृत्तिँवसानऽआचर पिनाकम्बिभ्रदा गहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मीढुष्टम। मीढुस्तमेति मीढुःऽतम। शिवतमेति शिवऽतम। शिवः। नः। सुमना इति सुऽमनाः। भव। परमे। वृक्षे। आयुधम्। निधायेति निऽधाय। कृत्तिम्। वसानः। आ। चर। पिनाकम्। बिभ्रत्। आ। गहि॥५१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 16; मन्त्र » 51
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    भावार्थ -
    हे ( मीढुस्तम ) अतिशय वीर्यसम्पन्न एवं प्रजा पर अति अधिक सुखों के और शत्रुओं पर अति अधिक शरों के वर्षों करने में समर्थ ! हे ( शिवतम ) अतिशय कल्याणकारिन् ! तू (नः) हमारे प्रति ( शिवः ) कल्याणकारी और ( सुमनाः ) शुभ चित्त वाला ( भव ) ( हो । तू ( परमे वृत्ते ) अति अधिक काटने योग्य शत्रु सेना पर अपने( आयुधं निधाय ) शस्त्र को रख कर और ( कृत्तिम् ) धर्म को ( वसानः) धारण करके ( पिनाकं बिभ्रद्) प्रजा के पालन और त्राण साधन शस्त्र , धनुष आदि (बिभ्रद् ) धारण करता हुआ ( आचर ) चारों ओर विचर और ( आ गहि ) हमें प्राप्त हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - निचृदार्षी यवमध्या त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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