यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 62
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्वा देवा ऋषयः
देवता - रुद्रा देवताः
छन्दः - विराडार्ष्यनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
1
येऽन्ने॑षु वि॒विध्य॑न्ति॒ पात्रे॑षु॒ पिब॑तो॒ जना॑न्। तेषा॑ सहस्रयोज॒नेऽव॒ धन्वा॑नि तन्मसि॥६२॥
स्वर सहित पद पाठये। अन्ने॑षु। वि॒वि॒ध्य॒न्तीति॑ वि॒ऽविध्य॑न्ति। पात्रे॑षु। पिब॑तः। जना॑न्। तेषा॑म्। स॒ह॒स्र॒योज॒न इति॑ सहस्रऽयो॒ज॒ने। अव॑। धन्वा॑नि। त॒न्म॒सि॒ ॥६२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
येन्नेषु विविध्यन्ति पात्रेषु पिबतो जनान् । तेषाँ सहस्रयोजने व धन्वानि तन्मसि ॥
स्वर रहित पद पाठ
ये। अन्नेषु। विविध्यन्तीति विऽविध्यन्ति। पात्रेषु। पिबतः। जनान्। तेषाम्। सहस्रयोजन इति सहस्रऽयोजने। अव। धन्वानि। तन्मसि॥६२॥
विषय - नाना रुद्रों अधिकारियों का वर्णन ।
भावार्थ -
( ये ) जो दुष्ट पुरुष ( अन्नेषु ) अन्नादि भोजनों और ( पात्रेषु ) पात्रों में अर्थात् जल दुग्ध आदि के पात्रों पर ( पिबतः ) पान करने वाले ( जनानू ) जनों को (विविध्यन्ति ) उनपर शस्त्र का प्रहार करते या उनको बाण के तुल्य घायल करते हैं। ( तेषां सहस्र०) उनको दूर करने के लिये हजारों योजन तक फैले देश में हम धनुषों को विस्तृत करें । अथवा जो अन्न दुग्धादि पदार्थों को खाते पीते हुए अपराधी पुरुषों पर प्रहार करते हैं उनके धनुषों को हजारों योजन तक विस्तृत करें ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सुरिगानुष्टुप् । गांधार ॥
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