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  • यजुर्वेद - अध्याय 16/ मन्त्र 14
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - रुद्रो देवता छन्दः - स्वराडर्ष्यनुष्टुप् स्वरः - ऋषभः
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    नम॑स्त॒ऽआयु॑धा॒याना॑तताय धृ॒ष्णवे॑। उ॒भाभ्या॑मु॒त ते॒ नमो॑ बा॒हुभ्यां॒ तव॒ धन्व॑ने॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नमः॑। ते॒। आयु॑धाय। अना॑तताय। धृ॒ष्णवे॑। उ॒भाभ्या॑म्। उ॒त। ते॒। नमः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। तव॑। धन्व॑ने ॥१४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नमस्तऽआयुधायानातताय धृष्णवे । उभाभ्यामुत ते नमो बाहुभ्यान्तव धन्वने ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नमः। ते। आयुधाय। अनातताय। धृष्णवे। उभाभ्याम्। उत। ते। नमः। बाहुभ्यामिति बाहुऽभ्याम्। तव। धन्वने॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 16; मन्त्र » 14
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    भावार्थ -
    (ते) तेरे ( अनातताय ) अविस्तृत, संक्षिप्त परन्तु शत्रु का घर्षण करने, मानभङ्ग करने वाले ( आयुधाय)हो। शस्त्र का (नमः) बलवीर्यं प्रकट हो । अथवा ( आयुदातये नमः ) लड़ने वाले ( अनातताय ) न अति विस्तृत अपितु स्वल्प कार्यात हो । ( कृष्णवे ) शत्रु का पराजय करने में समर्थ ( ते ) तुझको ( नमः) प्रजागण आदर दें एवं अन्न आदि पदार्थ दें, या तुझे वीर्य प्राप्त हो।( मे) में शत्रु को नामा देने का सामर्थ्य प्राप्त हो । ( उत् ) ओर( ते) तेरे ( उभाभ्याम् बाहुभ्याम् ) शत्रुओं को बाधा करने वाले दोनों बाहुओं के समान, स्थिर अस्थिर या दायें, बायें विद्यमान या पदाति और सवार दोनों प्रकार की सेनाओं को ( नमः ) बल और अन्न प्राप्त हो और ( तव धन्वने नमः ) तेरे धनुष अर्थात् धनुर्धर सेना बल को भी अन्न या वीर्य प्राप्त हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भुरिगार्ष्युष्णिक् । ऋषभः ॥

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