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  • यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 27
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - श्रीर्देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    ऊ॒र्ध्वमे॑न॒मुच्छ्र॑यताद् गि॒रौ भा॒रꣳ हर॑न्निव। अथा॑स्य॒ मध्य॑मेजतु शी॒ते वाते॑ पु॒नन्नि॑व॥२७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒र्ध्वम्। ए॒न॒म्। उत्। श्र॒य॒ता॒त्। गि॒रौ। भा॒रम्। हर॑न्नि॒वेति॒ हर॑न्ऽइव। अथ॑। अ॒स्य॒। मध्य॑म्। ए॒ज॒तु॒। शी॒ते। वात॑ पु॒नन्नि॒वेति॑ पु॒नन्ऽइ॑व ॥२७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्ध्वमेनमुच्छ्रायताद्गिरौ भारँ हरन्निव । अथास्य मध्यमेजतु शीते वाते पुनन्निव ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्ध्वम्। एनम्। उत्। श्रयतात्। गिरौ। भारम्। हरन्निवेति हरन्ऽइव। अथ। अस्य। मध्यम्। एजतु। शीते। वात पुनन्निवेति पुनन्ऽइव॥२७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 23; मन्त्र » 27
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    भावार्थ -
    ( गिरौ भारं हरन् इव) पर्वत पर बोझा ले जाने वाले के समान हे प्रजे ! ( ऊर्ध्वम् ) ऊंचे पद पर स्थित ( एनम् ) इस राजा को ( उच्छ्रयतात्) तू उन्नत कर (अथ) और जब ( अस्य मध्यम् ) इसका मध्य भाग बीच का शासन का केन्द्र-बल (शीते वाते) परिपुष्ट ऐश्वर्य के आधार पर ऐसे (एजतु) कम्पन करे, ऐसे प्रदीप्त हो जैसे (वाते) वायु में (पुनन् इव) तुष, अन्न को साफ करता हुआ पुरुष चेष्टा करता है । अर्थात् सदा ऐसा प्रयत्न होता रहे कि राज्य का मुख्य बल देश के लुच्चे लोगों को दूर करता रहे । (२) दम्पति के पक्ष में- स्त्री पुरुष को उन्नत करे । पुरुष का मध्यभाग, धनसम्पत्ति अथवा शरीर का मध्य भाग बल से युक्त हो। और वह अपने आचार को ब्रह्मचर्य से पवित्र करे आरोग्य रहे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - श्रीर्देवता । अनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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