यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 42
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - अध्यापको देवता
छन्दः - भुरिगुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
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दैव्या॑ऽअध्व॒र्यव॒स्त्वाच्छ्य॑न्तु॒ वि च॑ शासतु।गात्रा॑णि पर्व॒शस्ते॒ सिमाः॑ कृण्वन्तु॒ शम्य॑न्तीः॥४२॥
स्वर सहित पद पाठदैव्याः॑। अ॒ध्व॒र्यवः॑। त्वा॒। आ। छ्य॒न्तु॒। वि। च॒। शा॒स॒तु॒। गात्रा॑णि। प॒र्व॒श इति॑ पर्व॒ऽशः। ते। सिमाः॑। कृ॒ण्व॒न्तु॒। शम्य॑न्तीः ॥४२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दैव्याऽअध्वर्यवस्त्वाच्छ्यन्तु वि च आसतु । गात्राणि पर्वशस्ते सिमाः कृण्वन्तु शम्यन्तीः॥
स्वर रहित पद पाठ
दैव्याः। अध्वर्यवः। त्वा। आ। छ्यन्तु। वि। च। शासतु। गात्राणि। पर्वश इति पर्वऽशः। ते। सिमाः। कृण्वन्तु। शम्यन्तीः॥४२॥
विषय - राष्ट्र के पालक पुरुषों का कार्य, राष्ट्र का शासन और उनका शान्तिकारिणी व्यवस्थाएं बनाना ।
भावार्थ -
हे राष्ट्र ! (देवाः) विद्वानों में भी कुशल, श्रेष्ठ कोटि के (अध्वर्यवः) यज्ञ के समान नष्ट न होने वाले राष्ट्र के पालनकर्त्ता पुरुष (त्वा) तुझे (छ्यन्तु) विभक्त करें और (वि शासतु च) विविध उपायों से शासन करें। और वे (ते) तेरे (गात्राणि) अंगों को ( पर्वशः) प्रति पर्व या पोरु-पोरु पर (शम्यन्ती:) शक्तिकारक (सिमाः) बांधने वाली मर्यादाएं, व्यवस्थाएं (कृण्वन्तु) करें ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - राष्ट्रं देवता । भुरिगुष्णिक् । ऋषभः ॥
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