यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 43
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - राजा देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
1
द्यौस्ते॑ पृथि॒व्यन्तरि॑क्षं वा॒युश्छि॒द्रं पृ॑णातु ते।सूर्य॑स्ते॒ नक्ष॑त्रैः स॒ह लो॒कं कृ॑णोतु साधु॒या॥४३॥
स्वर सहित पद पाठद्यौः। ते॒। पृ॒थि॒वी। अ॒न्तरि॑क्षम्। वा॒युः। छि॒द्रम्। पृ॒णा॒तु॒। ते॒। सूर्यः॑। ते। नक्ष॑त्रैः। स॒ह। लो॒कम्। कृ॒णो॒तु॒। सा॒धु॒येति॑ साधु॒ऽया ॥४३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्यौस्ते पृथिव्यन्तरिक्षँवायुश्छिद्रम्पृणातु ते । सूयस्ते नक्षत्रैः सह लोकङ्कृणोतु साधुया ॥
स्वर रहित पद पाठ
द्यौः। ते। पृथिवी। अन्तरिक्षम्। वायुः। छिद्रम्। पृणातु। ते। सूर्यः। ते। नक्षत्रैः। सह। लोकम्। कृणोतु। साधुयेति साधुऽया॥४३॥
विषय - सूर्य, वायु, आकाश और नक्षत्रों के समान तेजस्वी, बलवान् और उदार दृढ़ स्थिर लोगों से राष्ट्र की न्यूनताएं दूर करना ।
भावार्थ -
हे राष्ट्र ! (ते) तेरे ( छिद्रम् ) छिद्र को (द्यौः) आकाश और उसके समान ज्ञानमय विद्वान्रूप सूर्यों से प्रकाशित राजसभा ( पृथिवी ) पृथिवी और सर्वाश्रय राजा, (वायुः) वायु और तीव्र बलवान् सेनापति (पृणातु) पूर्ण करे । (सूर्य) सूर्य और तेजस्वी विद्वान् राजा ( नक्षत्रैः ) नक्षत्रों और सामान्य प्रजाओं अथवा युद्ध में क्षत, विचलित न होने वाले वीरों के (सह) साथ (ते) तेरे में बसे ( लोकम् ) जनसमूह को (साधुया ) साधु, सच्चरित्र (कृणोतु) बनावे ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - राजा देवता । अनुष्टुप् । गांधारः ॥
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