यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 49
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - प्रष्टृसमाधातारौ देवते
छन्दः - निचृत त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
1
पृ॒च्छामि॑ त्वा चि॒तये॑ देवसख॒ यदि॒ त्वमत्र॒ मन॑सा ज॒गन्थ॑।येषु॒ विष्णु॑स्त्रि॒षु प॒देष्वेष्ट॒स्तेषु॒ विश्वं॒ भुव॑न॒मावि॑वेशाँ३ऽ॥४९॥
स्वर सहित पद पाठपृ॒च्छामि॑। त्वा॒। चि॒तये॑। दे॒व॒स॒खेति॑ देवऽसख। यदि॑। त्वम्। अत्र॑। मन॑सा। ज॒गन्थ॑। येषु॑। विष्णुः॑। त्रि॒षु। प॒देषु॑। आइ॑ष्ट॒ इत्याऽइ॑ष्टः। तेषु॑। विश्व॑म्। भुव॑नम्। आ। वि॒वे॒श॒ ॥४९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पृच्छामि त्वा चितये देवसख यदि त्वमत्र मनसा जगन्थ । येषु विष्णुस्त्रिषु पदेष्वेष्टस्तेषु विश्वम्भुवनमाविवेशा३ ॥
स्वर रहित पद पाठ
पृच्छामि। त्वा। चितये। देवसखेति देवऽसख। यदि। त्वम्। अत्र। मनसा। जगन्थ। येषु। विष्णुः। त्रिषु। पदेषु। आइष्ट इत्याऽइष्टः। तेषु। विश्वम्। भुवनम्। आ। विवेश॥४९॥
विषय - व्यापक परमेश्वर के तीन चरणों में विश्व की स्थिति।
भावार्थ -
हे (ब्रह्मन् ) विद्वन् ! ब्रह्मन् ! प्रभो ! हे (देवसख) देवों, विद्वानों के परम मित्र ! मैं (चितये) ज्ञान प्राप्ति के लिये (त्वा पृच्छामि ) तुझ से प्रश्न करता हूँ । (यदि) क्या ( त्वम् ) तू (अत्र) इस देवसभा में (मनसा) ज्ञान के साथ दत्तचित्त होकर (जगन्ध ) उपस्थित है । ईश्वर ज्ञानरूप से व्याप्त है ? ( येषु त्रिषु पदेषु ) जिन ज्ञान कराने वाले तीन साधनों या ज्ञान करने योग्य पदों और लोकों, चरणों, सृष्टि, स्थिति, संहार इन विविध सामर्थ्यौं में (विष्णुः) तू व्यापक परमेश्वर ही (इष्ट:) उपासना किया गया है ( तेषु) उनमें ही क्या ( विश्वं भुवनम् ) यह समस्त जगत् (आ विवेशां) समा जाता है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रष्टृसमाधातारौ देवते । ब्रह्मविषयकः प्रश्नः । निचृत् त्रिष्टुप् । गान्धारः ॥
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