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  • यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 63
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - समाधाता देवता छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    सु॒भूः स्व॑य॒म्भूः प्र॑थ॒मोऽन्तर्म॑हत्यर्ण॒वे।द॒धे ह॒ गर्भ॑मृ॒त्वियं॒ यतो॑ जा॒तः प्र॒जाप॑तिः॥६३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒भूरिति॑ सु॒ऽभूः। स्व॒य॒म्भूरिति॑ स्व॒य॒म्ऽभूः। प्र॒थ॒मः। अ॒न्तः। म॒ह॒ति। अ॒र्ण॒वे। द॒धे। ह॒। गर्भ॑म्। ऋ॒त्विय॑म्। यतः॑। जा॒तः। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः ॥६३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुभूः स्वयम्भूः प्रथमो न्तर्महत्यर्णवे । दधे ह गर्भमृत्वियँयतो जातः प्रजापतिः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सुभूरिति सुऽभूः। स्वयम्भूरिति स्वयम्ऽभूः। प्रथमः। अन्तः। महति। अर्णवे। दधे। ह। गर्भम्। ऋत्वियम्। यतः। जातः। प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः॥६३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 23; मन्त्र » 63
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    भावार्थ -
    (सुभूः) सबसे श्रेष्ठ, सर्वपूज्य, सर्वोत्पादक, (स्वयंभूः) स्वयं अपनी सत्ता से विद्यमान, ( प्रथम ) सबसे पूर्व विद्यमान, जगदीश्वर (महति अर्णवे) बड़े अर्णव, प्रकृति के परमाणु रूप सागर के (अन्तः) बीच में, ( ऋत्वियम् ) स्त्री के देह में ऋतुकाल के अवसर पर जैसे पुरुष संतति उत्पादक गर्भ को स्थापित करता है उसी प्रकार नियत काल में ( गर्भम् ) हिरण्यगर्भ को (दधे) स्थापन करता है । (यतः) जहां से (प्रजापतिः) प्रजा का पालक, सूर्य या संवत्सर (जात :) उत्पन्न होता है । इसी प्रकार राजा - (सुभूः) उत्तम सामर्थ्यवान्, (स्वयंभूः) स्वयं सत्तावान्, (प्रथमः) सबसे श्रेष्ठ, विद्वान् (महति अर्णवे अन्तः) बड़े भारी जन- सागर के बीच ( ऋत्वियम् ) राजसभा के सदस्यों के अनुकूल( गर्भम् ) राष्ट्र को वश करने वाले प्रबन्ध को (दधे) धारण करता है ( यतः) जिसमें से ( प्रजापतिः) प्रजा का पालक राजा और राष्ट्र (जातः) उत्पन्न होता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रजापतिर्देवता । विराड् अनुष्टुप् । गांधारः ॥

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