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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 31
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    अश्वा॑वतीं॒ प्रत॑र॒ या सु॒शेवा॒र्क्षाकं॑ वा प्रत॒रं नवी॑यः। यस्त्वा॑ ज॒घान॒ वध्यः॒ सोअ॑स्तु॒ मा सो अ॒न्यद्वि॑दत भाग॒धेय॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्व॑ऽवतीम् । प्र । त॒र॒ । या । सु॒ऽशेवा॑ । ऋ॒क्षक॑म् । वा॒ । प्र॒ऽत॒रम् । नवी॑य: । य: । त्वा॒ । ज॒घान॑ । वध्य॑: । स: । अ॒स्तु॒ । मा । स: । अ॒न्यत् । वि॒द॒त॒ । भा॒ग॒ऽधेय॑म् ॥२.३१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्वावतीं प्रतर या सुशेवार्क्षाकं वा प्रतरं नवीयः। यस्त्वा जघान वध्यः सोअस्तु मा सो अन्यद्विदत भागधेयम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्वऽवतीम् । प्र । तर । या । सुऽशेवा । ऋक्षकम् । वा । प्रऽतरम् । नवीय: । य: । त्वा । जघान । वध्य: । स: । अस्तु । मा । स: । अन्यत् । विदत । भागऽधेयम् ॥२.३१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 31

    भावार्थ -
    हे पुरुष ! तू (अश्वावतीम्=अश्मावतीम्) प्रस्तरों से पूर्ण, तीव्र, उस नदी को (प्र तर) भली प्रकार पार कर (या) जो (सुशेवा) सुख से सेवन करने योग्य और सुख देनेहारी है। अथवा—हे पुरुष ! तू (अश्वावतीं प्र तर या सुशेवा) जो सुख देनेवाली घोड़ों से युक्त शत्रु की सेना भी है उनको पार कर। (वा) और तू (नवीयः) नया अदृष्ट पूर्व (ऋक्षाकम्) भल्लुओं से पूर्ण (प्रतरम्) अच्छी प्रकार पार करने योग्य वन को भी पार कर। अथवा—अध्यात्म में (अश्वावतीम्) अश्व-कर्मेन्द्रियों से युक्त इस कर्ममयी जीवन नदी को पार कर और (नवीयः) अति नवीन (प्रतरम्) उत्कृष्ट पथ में ले जाने वाले (ऋक्षाकम्) ऋक्ष=ज्ञानेन्द्रिय गण को भी (प्र तर) पारकर, वश कर, सुख से जीवन बिता। हे पुरुष ! (त्वा) तुझे (यः) जो (जघान) मारे (सः) वह (बध्यः) मारने योग्य, बध करने और दण्ड करने योग्य हो। (सः) वह (अन्यत्) और अधिक (भागधेयम्) भोग, जीवनभाग्य को (मा विदत्त) न प्राप्त करे। प्रत्येक पुरुष अपना जीवन पूर्ण भोगे, जो किसी का प्राण ले वह स्वयं जीवन का भोग न कर सके।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ताश्च बहवो दवताः। ४, ३४ अग्निः, ५ जातवेदाः, २९ पितरः । १,३,६, १४, १८, २०, २२, २३, २५, ३०, ३६,४६, ४८, ५०, ५२, ५६ अनुष्टुमः, ४, ७, ९, १३ जगत्यः, ५, २६, ३९, ५७ भुरिजः। १९ त्रिपदार्ची गायत्री। २४ त्रिपदा समविषमार्षी गायत्री। ३७ विराड् जगती। ३८, ४४ आर्षीगायत्र्यः (४०, ४२, ४४ भुरिजः) ४५ ककुम्मती अनुष्टुप्। शेषाः त्रिष्टुभः। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥

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