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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 56
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    इ॒मौ यु॑नज्मिते॒ वह्नी॒ असु॑नीताय॒ वोढ॑वे। ताभ्यां॑ य॒मस्य॒ सद॑नं॒ समि॑ति॒श्चाव॑ गच्छतात्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मौ । यु॒न॒ज्मि॒ । ते॒ । वह्नी॒ इति॑ । असु॑ऽनीताय । वोढ॑वे । ताभ्या॑म् । य॒मस्य॑ । सद॑नम् । सम्ऽइ॑ती: । च॒ । अव॑ । ग॒च्छ॒ता॒त् ॥२.५६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमौ युनज्मिते वह्नी असुनीताय वोढवे। ताभ्यां यमस्य सदनं समितिश्चाव गच्छतात्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमौ । युनज्मि । ते । वह्नी इति । असुऽनीताय । वोढवे । ताभ्याम् । यमस्य । सदनम् । सम्ऽइती: । च । अव । गच्छतात् ॥२.५६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 56

    भावार्थ -
    जिस प्रकार मनुष्य राजा के द्वार पर या राजसभाओं में जाने के लिये अपने रथ में दो घोड़े या बैल लगाकर पहुंचता है उसी प्रकार सर्वनियन्ता परमेश्वर के घर तक पहुंचने के लिये भी प्राण और अपान रूप दो वाहनों को योगाभ्यास द्वारा जोड़ना आवश्यक है। हे जीव ! हे पुरुष ! (असुनीताय) असु प्राण द्वारा लोकान्तर में पहुंचने वाले (ते) तेरे आत्मा को (वोढ़वे) चहन करने के लिये (इमौ) इन दोनों प्राण और अपान को मैं (युनज्मि) एकत्र युक्त करता हूं (ताभ्याम्) उन दोनों से (यमस्य) सर्वनियन्ता परमेश्वर के रचे (सादनम्) आश्रयस्थान, शरण (सम्-इतीः च) सत् ज्ञानमय सत्संगों को (अवगच्छताम्) तू प्राप्त हो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ताश्च बहवो दवताः। ४, ३४ अग्निः, ५ जातवेदाः, २९ पितरः । १,३,६, १४, १८, २०, २२, २३, २५, ३०, ३६,४६, ४८, ५०, ५२, ५६ अनुष्टुमः, ४, ७, ९, १३ जगत्यः, ५, २६, ३९, ५७ भुरिजः। १९ त्रिपदार्ची गायत्री। २४ त्रिपदा समविषमार्षी गायत्री। ३७ विराड् जगती। ३८, ४४ आर्षीगायत्र्यः (४०, ४२, ४४ भुरिजः) ४५ ककुम्मती अनुष्टुप्। शेषाः त्रिष्टुभः। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥

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