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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 42
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - भुरिक् आर्षी गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    निरि॒मांमात्रां॑ मिमीमहे॒ यथाप॑रं॒ न मासा॑तै। श॒ते श॒रत्सु॑ नो पु॒रा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि: । इ॒माम् । मात्रा॑म् । मि॒मी॒म॒हे॒ । यथा॑ । अप॑रम् । न । मासा॑तै । श॒ते । श॒रत्ऽसु॑ । नो इति॑ । पु॒रा ॥ २.४२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    निरिमांमात्रां मिमीमहे यथापरं न मासातै। शते शरत्सु नो पुरा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि: । इमाम् । मात्राम् । मिमीमहे । यथा । अपरम् । न । मासातै । शते । शरत्ऽसु । नो इति । पुरा ॥ २.४२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 42

    भावार्थ -
    (शते शरत्सु) जीवन के सौ वर्षों में हम अपने जीवन की (इमां मात्राम्) इस मात्रा, काल परिमाण को ऐसी (प्र मिमीमहे) उत्तमता से मापें, व्यतीत करें (यथा अपरं न मासातै) जैसा दूसरा न माप सके, (नो पुरा) और न पहले किसी ने वैसा जीवन पूरा किया हो। (अप इमां मात्राम् इत्यादि) हम अपने इस जीवन की कालमात्रा इतनी सुगमता से व्यतीत करें, (इमां मात्रां वि मिमीमहे) इस जीवन-यात्रा को ऐसे विशेष रूपसे व्यतीत करें (इमा मात्रां निर मिमीमहे) इस जीवनयात्रा को ऐसी पूर्णता या निर्दोषता से व्यतीत कर। (इमां मात्रां उत् मिमीमहे) इस जीवन की काल मात्रा को ऐसी उत्तमता से व्यतीत करें, (इमां मात्रां सम् मिमीमहे) इस जीवन यात्रा को ऐसी भली प्रकार से समाप्त करें कि जैसी कोई न व्यतीत कर सके और न किसी ने हमसे पहले की हो। अर्थात् हम अपने जीवन को ऐसी उत्तम रीति से, सुगमता से, विशेष रूपसे, निःशेष या निर्दोषरूपसे, उन्नत रूप से, समान रूप से व्यतीत करें कि आदर्श हों। लोग कहें कि ‘न भूतो न भविष्यति’।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ताश्च बहवो दवताः। ४, ३४ अग्निः, ५ जातवेदाः, २९ पितरः । १,३,६, १४, १८, २०, २२, २३, २५, ३०, ३६,४६, ४८, ५०, ५२, ५६ अनुष्टुमः, ४, ७, ९, १३ जगत्यः, ५, २६, ३९, ५७ भुरिजः। १९ त्रिपदार्ची गायत्री। २४ त्रिपदा समविषमार्षी गायत्री। ३७ विराड् जगती। ३८, ४४ आर्षीगायत्र्यः (४०, ४२, ४४ भुरिजः) ४५ ककुम्मती अनुष्टुप्। शेषाः त्रिष्टुभः। षष्ट्यृचं सूक्तम्॥

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